बाबा रामदेवजी की जीवित समाधि (भादो सुदी एकादशी वि.सं. 1442) :
बाबा रामदेवजी की समाधि के प्रसंग के साथ उनकी अनन्य भक्त डाली बाई का नाम जुड़ा हुआ है। कहते हैं कि डाली बाई जब जंगल में गायों के बछड़े चरा रही थी तब उसे रूणीचा में विभिन्न वाद्ययन्त्रों की ध्वनि सुनाई दी। अपनी जिज्ञासा की पूर्ति के लिए उसने एक पथिक से पूछा, तब उसने बताया कि अजमालजी के कुंवर रामदेवजी स्वर्ग को पधार रहे हैं।
यह सुनकर डालीबाई भी समाधि लेने के लिए अति उत्कण्ठित हुई एवं उसी पथिक से बछड़ों को थोड़ी देर तक चराने का निवेदन किया किन्तु उसको दूर जाना था, समय कम था। अन्त में डालीबाई बछड़ों को ही रामदेवजी की ‘आण’ (सौगन्ध) दिलवा कर कहती है कि तुम सांझ होने पर अपने आप घर आ जाना
बाछड़िया बीरा थांने गुरु पीरां री आण।
सांझ पड़ी रा घर आवजौ।।
इतना कह कर डालीबाई दौड़ती हुई रूणीचा पहुंची जहां कि रामसरोवर की पाळ रामदेवजी की समाधि के लिए गुफा खोदी जा रही थी और रामदेवजी खड़े उत्सव मना रहे थे।
उभा है रामदेजी रामा रे सरोवरिये री पाल।
गुफा खीणीजै नै, रामौ रंग रमै।।
डालीबाई ने अपने इष्टदेव रामदेवजी से कहा कि यह जो गुफा खोदी जा रही है यहां पर तो मैं समाधि लूंगी क्योंकि यह स्थान विधाता द्वारा मेरी समाधि के लिए ही निश्चित किया गया है। डाली की इस बात को सुनकर वहां एकत्रित जनसमुदाय का कौतुहल बढ़ा। डालीबाई से जब रामदेवजी ने यह पूछा कि तेरी समाधि स्थल के क्या लक्षण है? तब डालीबाई ने बताया कि जिस स्थान पर आटी, डोरा एवं कांगसी निकल जाय वही मेरी सामधि का स्थान है।
उस स्थान पर खोदने पर वस्तुत: आटी, डोरा और कांगसी निकले। रामदेवजी अपनी भक्त डालीबाई की इस चमत्कारिता से गद्गद् हो गये और उसे वहीं पर समाधि लेने की आज्ञा दी। इस प्रकार रामदेवजी से एक दिन पूर्व अर्थात् वि. सं. 1442 की भादों सुदी दशम् को डालीबाई ने वहां समाधि ली।
डालीबाई की समाधि के पश्चात् रामदेवजी एक बार अपने बन्धु-बान्धवों के साथ पुन: घर लौट कर गए थे। एक रात रामदेवजी को अपने साथ फिर पाकर लोगों ने मन ही मन डालीबाई को धन्यवाद दिया।
कहा जाता है कि दूसरे दिन प्रात: समाधि लेने से पूर्व रामदेवजी ने शाक संतप्त जन समुदाय को आध्यात्मिक उपदेश दिया तथा अपने पिता अजमाल और माता मैणादे तथा भाई वीरमदेव व अपनी भाभी और अपनी पत्नी नेतलदे को भी ज्ञानोपदेश देते हुए उन्हें मोह-ममता के दलदल से निकालने का प्रयत्न किया, किन्तु इतना सब कुछ करने पर भी उन सबका करुण रुदन रुका नहीं। एकत्रित जन-समुदाय का रुदन, कोलाहल और विलाप शान्त नहीं हुआ तब रामदेवजी ने तुंवरों को यह वरदान दिया कि-
आप लोग किसी के कहने पर अथवा मोह के वशीभूत होकर मेरी समाधि को खोलना मत, आपकी हर पीढ़ी में मुझ जैसा पीर होता रहेगा।
तुंवरों को यह वरदान देकर भादो सुदी एकादशी वि.सं. 1442 को रामदेवजी ने जीवित समाधि ले ली।
समाधि के पश्चात् भी रामदेवजी ने अलौकिक रूप से प्रकट होकर अपने प्रियजनों को पर्चे दिये। इन पर्चो की कोई सीमा नहीं किन्तु समाधि के तुरन्त पश्चात् अथवा कुछ वर्षों पश्चात् दिये गये वे पर्चे जिनका लोक साहित्य में उल्लेख है एवं जो लोक प्रसिद्ध हैं और जिनके पीछे किसी न किसी लोक कथा का आधार है, उन्हीं पर्चो का संक्षिप्त परिचय यहां दिया जा रहा है।
हड़बू सांखला को पर्चा :
हड़बू सांखला रामदेवजी के मौसी के बेटे भाई माने जाते हैं। ये फलौदी तथा रामदेवरा के मध्य स्थित बैंगटी नामक ग्राम के ठाकुर थे। राजस्थान के प्रसिद्ध पांच पीरों में इनकी भी गणना है। ये अति प्रसिद्ध
शकुन-विचारक थे।
कहा जाता है कि हड़बू सांखला रामदेवजी की समाधि के अवसर पर किसी यात्रा पर गये हुए थे। वापिस अपने गांव बैंगटी आने पर उन्हें यह शोक संवाद सुनने को मिला था कि रामदेवजी ने समाधि ले ली। उनके हृदय को गहरी ठेस पहुंची और वे रामदेवजी के परिवार वालों से मिलने हेतु रामदेवरा (रूणीचा) के लिए चल पड़े। कहा जाता है कि रवाना होते समय उन्हें शुभ शकुन हुए, जिसके आधार पर उन्होंने अपने परिवार के लोगों से कहा कि रामदेवजी द्वारा समाधि लेने का समाचार झूठा है।
हड़बू जी जब रूणीचा ग्राम की ओरण में पहुंचे तो उन्होंने एक वृक्ष के नीचे अपने घोड़ों के पास रामदेवजी को देखा। उनके हर्ष का पार नहीं रहा। रामदेवजी ने भी उनका स्वागत किया और बांहे भर कर मिले। बहुत दिनों के पश्चात् दोनों भाई मिले थे, हड़बूजी ने सकुचाते हुए कहा कि न जाने आपके विषय में लोगों ने मुझे अशुभ और मिथ्या बातें क्यों कहीं? रामदेवजी ने कहा कि हड़बू! इस संसार में विभिन्न तरह के लोग रहते हैं,यह नहीं कह सकते कि कौन सत्य है और कौन मिथ्या –
केई नर साचा हड़बू, केई नर कूड़ा।
साच-कूड़ रा भेद किण जाण्या।।
कहा जाता है कि रामदेवजी ने कुछ समय तक बातचीत करने के पश्चात् हड़बू को यह कह कर कि तुम चलो मैं अभी आया, घर के लिए विदाई दे दी और उनके साथ में एक रतन कटोरा एवं एक सोहन चुटिया घर भेज दिया जो कि रामदेवजी को उनके माता-पिता की ओर से उपहार स्वरूप समाधि में साथ रखे गये थे।
हड़बू सांखला और तुंवरों का मिलन एवं समाधि को पुन: खुदवाना और तुंवरों को शापः
हड़बू सांखला ने अजमालजी के घर जाकर शोक-संतप्त तुंवरों से हर्ष के साथ कहा कि, रामदेवजी तो मुझे अभी-अभी मिले हैं तुम लोग किस बात का शोक मना रहे हो। रतन-कटोरा और सोहन-चुटिया देकर हड़बू ने अपनी बात की पुष्टि भी की। ‘तुंवर लोग भ्रम से ग्रसित हो और मोह आवृत्त होकर हड़बू सांखला को साथ लेकर ‘ओरण’ में गए। रामदेवजी को सब जगह ढूंढा और जब वे न मिले तो इन्होंने जाकर समाधि खोदना प्रारम्भ किया। इन्हें यह भ्रम हो गया कि रामदेवजी कहीं किसी ढंग से वापिस इस समाधि से बाहर निकल गये होंगे।
किन्तु, जब वे समाधि खोद चुके तो उन्हें वहां पर रामदेवजी के फूल (हड्डियां विशेष) मिले, और तत्कालं आकाशवाणी हुई कि हे तुंवरों! आपने मुझ पर विश्वास नहीं किया, मेरी आज्ञा का पालन नहीं किया, अब तुम्हारी पीढ़ी में कभी पीर नहीं होगा और तुम लोग दरिद्र हो जाओगे।
राणी रूपांदे व रावल मालजी को पर्चा :
रावळ मालजी मारवाड़ के शासक थे, महवे नगर में इनकी राजधानी थी। इनका जन्म वि.सं. 1385 में हुआ और स्वर्गवास वि.सं. 1456 में।रावळ मालजी उगमसी भाटी से दीक्षा लने के बाद मल्लीनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुए।
महवे के रावळ मालजी’ की राणी रूपांदे रात्रि में, धारू मेघवाल के घर अपने गुरु उगमसी भाटी के आगमन पर आयोजित, रामदेवजी के जम्मे में चली गई थी। वहां से जब वह एक थाल में प्रसाद लिए वापिस आई तो रावळ मालजी ने उसे बाहर जाने का कारण पूछा और क्रुद्ध होकर उसकी गर्दन काटने के लिए तलवार निकाली। इस पर राणी ने अपने थाल के
मर से वस्त्र हटाया, तो थाल में विभिन्न प्रकार के फूल खिले हुए थे। हरजी भाटी ने ‘रूपादे री वेल’ में इस चमत्कार का उल्लेख इस प्रकार किया है –
घर धारू रै जमौ जगायौ,
रूपांदे राणी ने वायक आया।
महलां में कोप्यौ जद मेवै रो राव
थाली में बाग लगायो।।
दीठी थाली परचो पायो,
इनवी राजा सीस नवायो।
यह आश्चर्यजनक बात थी, कारण कि इस क्षेत्र में कहीं भी उद्यान नहीं था। इस चमत्कार से प्रभावित होकर रावळ मालजी भी उगमसी के शिष्य बन गये।
क्रमशः पोस्ट …..
बाबा रामदेवः इतीहास एवं साहित्य
लेखकः प्रो.(डॉ.) सोनाराम बिस्नोई
पूर्व अद्य्यक्ष राजस्थानी विभाग
जयनारायण व्यास वश्व विदद्य्यालय – जोधपुर
पूर्व अद्य्यक्ष राजस्थानी भाषा
साहित्य एवं संस्कृति अकादमी- बिकानेर
प्रेषित एवं संकलनः
मयुर.सिध्धपुरा- जामनगर
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