बाबा रामदेव पीरजी का वंश परिचय

बाबा रामदेवः इतीहास एवं साहित्य
लेखकः प्रो (डॉ.) सोनाराम बिस्नोई

बाबा रामदेवजी से सम्बन्धित साहित्य के आधार पर उनका वंश परिचय सरलतापूर्वक प्रस्तुत किया जा सकता है। यह साहित्य प्रकाशित एवं अप्रकाशित दोनों ही रूपों में उपलब्ध है। बाबा रामदेवजी सम्बन्धी अद्यावधि प्रकाशित साहित्य के अन्तर्गत धार्मिक कथाओं के रूप में गायकों या कथा वाचकों द्वारा लिखी हुई पुस्तकें एवं भजन-संग्रह आदि हैं। इन पुस्तकों का आधार मौखिक रूप से प्रचलित बाबा रामदेव सम्बन्धी लोक साहित्य ही रहा है। इसके अतिरिक्त सम्पादित रूप में प्रकाशित बाबा रामदेव सम्बन्धी सहित्य के अन्तर्गत स्वयं रामदेवजी के नाम से मौखिक परम्परा द्वारा प्रचलित ‘बाणियों का सम्पादन एवं प्रकाशन कई व्यक्तियों द्वारा पृथक-पृथक रूप में किया गया है।’ रामदेवजी के अनन्य भक्तकवि हरजी भाटी के नाम से प्रचलित कुछ ‘बाणियां’ एवं ‘राणी रूपांदे री वेल’ आंशिक रूप से स्वामी श्री गोकुलदासजी महाराज द्वारा सम्पादित है। |

महाराजा मानसिंहजी द्वारा रचित रामदेवजी सम्बन्धी कुछ पद ‘मान-पद संग्रह भाग-3 में प्रकाशित हैं। चिमनजी कविया कृत रामदेवजी का ‘ब्यावला’ (खण्डित प्रति) ‘सोढ़ायण’ में प्रकाशित हुआ है। कुछ पत्र-पत्रिकाओं में श्री रामदेवजी विषयक शोध निबन्ध, वार्ता एवं पदादि प्रकाशित हुए हैं। (संदर्भ सूची-1)

ऐतिहासिक दृष्टि से रामदेवजी से सम्बन्धित कोई प्रामाणिक ग्रंथ स्वतन्त्र रूप से अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है, फिर भी, कुछ ऐतिहासिक ग्रंथों में रामदेवजी से सम्बन्धित कुछ प्रसंग अवश्य प्रकाशित हुए हैं। रामदेवजी के विषय में ऐतिहासिक तथ्यों के प्रमाण-स्वरूप केवल ये प्रासंगिक संदर्भ ही प्रकाशित रूप में उपलब्ध हैं।

बाबा रामदेव सम्बधी अप्रकाशित साहित्य दो रूपों में प्राप्य है –
1 हस्तलिखित
2 मौखिक परम्परा से।

हस्तलिखित साहित्य के अन्तर्गत गद्य एवं पद्य (काव्य) दोनों ही रूप उपलब्ध हैं। बाबा रामदेव सम्बन्धी हस्तलिखित गद्य साहित्य के रूप में निम्नलिखित विधाएं हैं –

बाबा रामदेव से सम्बन्धित कुछ ‘वार्ताएं (बातें) राजस्थानी भाषा में 18वीं शताब्दी की लिपिबद्ध की हुई हैं, जिनकी प्रतिलिपियां प्रस्तुत शोध ग्रंथ के परिशिष्ट (भाग-ग) में प्रकाशित हैं। (संदर्भ सूची-2)

शिला-लेखों के रूप में रामदेवरा की ‘पर्चा बावड़ी’ के शिलालेख ही उपलब्ध है, जिनका विवरण प्रस्तुत शोध-ग्रंथ के द्वितीय अध्याय में प्रस्तुत किया गया है।

बाबा रामदेव सम्बन्धी हस्तलिखित काव्य (पद्य साहित्य) के रूप में 18वीं शताब्दी के प्रारम्भ में लिपिबद्ध छन्दों की निम्नलिखित प्रतियां उपलब्ध हुई हैं –

1. सायर खेम रचित – ‘पश्चिमाधीश रो छन्द’
2. जालू द्वारा रचित – ‘श्री रामदेवजी रो छन्द’
3. वुदर द्वारा रचित – ‘पश्चिमाधीश रो छन्द’
4. अचल द्वारा रचित – ‘पश्चिमाधिपति छन्द’
5. चंद द्वारा रचित – ‘धणी छन्द’
6. सूरदास द्वारा रचित – ‘बाबाजी रा गीत’
7. अबीरचन्द द्वारा रचित – ‘रामदेवजी रो सिलोको’
8. महाराजा गजसिंह (बीकानेर) द्वारा रचित – ‘रामदेवजी रा सोरठा’।
9. हरजी भाटी द्वारा रचित ‘रामदेवजी रो ब्यावलो’ एक अनुपम खण्डकाव्य है। (इसकी एक हस्तलिखित प्रति ‘पण्डितजी की ढाणी’ में उपलब्ध है) जो प्रस्तुत ग्रंथ के परिशिष्ट भाग (क) में प्रकाशित किया है।

‘रूपांदे री वेल’ भी हरजी भाटी का एक लोकप्रिय लघु खण्ड-काव्य है। इसकी कोई हस्तलिखित प्रति अभी तक देखने में नहीं आई है। अन्य किसी कवि द्वारा रचित । ‘रूपांदे री वेल’ की एक अपूर्ण हस्तलिखित प्रति राजस्थान राज्य प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर में सुरक्षित है। (संदर्भ सूची-3)

मौखिक परम्परा का साहित्य (लोक साहित्य):

बाबा रामदेव सम्बन्धी मौखिक परम्परा से सतत् चला आ रहा साहित्य वस्तुतः लोक साहित्य ही है। यद्यपि यह साहित्य रामदेवजी के भक्त कवियों के नाम से प्रचलित है, इन वाणियों के अन्त में रचयिता के रूप में हरजी भाटी, लिखमोजी माळी, विजोजी सांणी, देवसी माळी, जालम दर्जी आदि भक्त कवियों का ‘थेवा’ लगता है। रचयिता के रूप में इनका नाम बांणी की अन्तिम पंक्ति में बोला जाता है तथापि यह समग्र साहित्य लोक-साहित्य की श्रेणी में आता है क्योंकि –

1. यह मौखिक रूप से प्रचलित है।
2. इसमें रचयिता अज्ञात है अथवा रचयिता के व्यक्तित्व का अभाव है।
3. भक्त कवियों का कृतित्व भी है, तो लोक मानस के सामान्य तत्वों से युक्त है।
4. निर्माता के अहं के चैतन्य व पांडित्य प्रदर्शन से मुक्त है।
5. प्रामाणिक पाठ का अभाव है।
6. संगीत एवं नृत्य का अभिन्न साहचर्य है।
7. स्थानीयता का प्रचुर पुट है।
8. उपदेशात्मक प्रवृत्ति का अभाव है।
9. स्वाभाविक प्रवाह है।
10. आलंकारिक शैली का अभाव है।
11. दीर्घ कथानक है।
12. टेक पदों की पुनरावृत्ति है।
(संदर्भ सूची-4)

उपर्युक्त तत्वों से युक्त बाबा रामदेव सम्बन्धी लोक काव्य (पद्य साहित्य) के अतिरिक्त लोक परम्परा का गद्य साहित्य (वार्ताएं, लोक कथाएं, जन-श्रुतियां आदि रूप) भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। वस्तुतः रामदेवजी के समसामयिक लिखित इतिहास के अभाव में यह लोक साहित्य ही इतिहासवत् प्रामाणिक होकर उल्लिखित समस्त प्रकार के रामदेव सम्बन्धी साहित्य का मूल आधार बना।

इस समग्र साहित्य को बाबा रामदेवजी के वंश परिचय के लिए प्रामाणिक आधार मान कर इसे अन्तःसाक्ष्य एवं बहिःसाक्ष्य के रूप में विभाजित किया जा सकता है।

1. अन्तःसाक्ष्य : इसका प्रमाण स्वयं रामदेवजी के नाम के प्रचलित काव्य है।
2. बहिःसाक्ष्य : इसके प्रमाण निम्नलिखित हैं –

1. रामदेवजी के भक्त कवियों के नाम से प्रचलित काव्य।
2. विभिन्न लोक कथाएं।
3. धार्मिक कथाओं के रूप में प्रकाशित पुस्तकें।
4. शोध निबन्ध तथा सम्पादित वांणियां पद आदि।
5. ऐतिहासिक संदर्भ।
6. हस्तलिखित वार्ताएं (लिपिबद्ध लोक वार्ताएं)।
7. शिलालेख।
8. आराधना विधि।
9. हस्तलिखित अथवा प्रकाशित प्राचीन छन्द।
10. मौखिक प्रवृत्ति प्रधान विविध रूपों का लोक काव्य।

स्वयं रामदेवजी के नाम से मौखिक परम्परा से प्रचलित काव्य नीति और उपदेश से ही अधिक सम्बन्धित है, अतएव उसमें जीवन और वंश के विषय में बहुत कम उल्लेख मिलता है। फिर भी, यत्-किंचित् रूप में कुछ तथ्य प्राप्त हो जाते हैं। उपर्युक्त सभी प्रमाणों के आधार पर रामदेवजी के पिता का नाम अजमाल था। 18वीं शताब्दी के आरम्भ में लिपिबद्ध कुछ प्राचीन छंदों में भी रामदेवजी के पिता का नाम अजमाल बताया गया है।(संदर्भ सूची-5)

इसी शताब्दी में लिपिबद्ध एक प्राचीन बात (वार्ता) भी इस तथ्य की पुष्टि करती है। इन से सम्बन्धित कुछ अन्य बातों (वार्ताओं) में अजमल के स्थान पर अजैसीजी नाम मिलता है। कुछ निबन्धकारों ने अजैसीजी (अजैसी) नाम का परिवर्तित रूप अजैसिंह भी प्रयुक्त किया है। वस्तुत: अजमल, अजमाल, अजैसी, अजैसिंह एक नाम के ही पृथक-पृथक प्रयोग है अर्थात् अजमाल या अजैसी में कोई भेद नहीं है।

रामदेवजी के अनन्य भक्त कवि हरजी भाटी ने अपने काव्य में अधिकांश रूप में अजमल अथवा अजमाल नामों का ही प्रयोग किया है परन्तु कहीं-कहीं पर इन्होंने ‘अजैसी’ नाम का प्रयोग भी किया है, यथा –
(संदर्भ सूची-5)

संगवी आय सहर में बसिया,
सपने में रणछोड़ कहै।
पिंडत अजैसी द्वारका पधारो।
बिन लिखिया बाबो पुत्र वेवै ।।

इससे स्पष्ट हो जाता है कि अजमाल और अजैसी एक ही नाम है फिर भी, अजैसी की अपेक्षाकृत अजमाल नाम का प्रयोग ही बाबा रामदेव से संबंधित साहित्य में बहुलता के साथ हुआ है एवं तुंवरों के भाटों की बही में भी रामदेव के पिता का नाम अजमाल ही लिखा है।

इनकी माता का नाम मेणादे था। रामदेवजी जाति के ‘तुंवर’ या ‘तंवर’ वंशीय राजपूत थे, जो वस्तुतः तोमर वंश ही है।
(संदर्भ सूची-6)

तोमर (तुंवर, तंवर) वंश का प्रवर्तन व परिचय:

तोमर वंश प्रत्यक्ष रूप से चंद्रवंशीय कुरु-कुल से सम्बन्धित है। कुरु-वंश में कुन्तीपुत्र अर्जुन पाण्डव की 32 वीं पीढ़ी में तुंग नामक प्रतापी एवं भाग्यशाली राजा हुए। इन्हीं से तोमर (तुंवर, तंवर) वंश का प्रवर्तन हुआ।

अनंगपाल तोमर:

तोमर वंश के प्रवर्तक महाराज तुंग की 34 वीं पीढ़ी में महाराजा अनंगपाल (द्वितीय) हुए, जो अपने शासन-काल में भारत के चक्रवर्ती सम्राट थे। अनंगपाल के कोई पुत्र नहीं था इसलिए उसने अपने दोहित्र पृथ्वीराज चौहान को अपने राज्य का अधिकारी बना दिया। इसके बाद अनंगपाल तोमर पाटण आकर रहे। यहीं पर वृद्धावस्था में इनके अमजी, सरवण तथा तोरणपाल नामक पुत्र उत्पन्न हुए। अमजी पाटण छोड़कर पश्चिमी राजस्थान में आकर रहे। इनकी 7वीं पीढ़ी अर्थात् महाराजा अनंगपाल की 8वीं पीढ़ी (कुन्ती-पुत्र अर्जुन की 72वीं पीढ़ी) में रामदेवजी अवतरित हुए। यह वंशावली यहां प्रकाशित की जा रही है।

रामदेवजी का वंश-वृक्ष:

रामदेवजीके वंश- वृक्ष को समजने के लिए वशं-वृक्षकी प्रस्तुती फोटो (चार्ट) रखी गई है।

vruksh

यद्यपि बाबा रामदेवजी से सम्बन्धित लोक-साहित्य में उनकी रानी के रूप में अमरकोट के दलजी सोढ़ा की राजकुमारी नेतलदे लोक विख्यात तथा लोक मानस में “बाबे री बीज” की तरह प्रतिष्ठित हो चुकी है, परन्तु तुंवरों (तंवरों) के भाटों की बही के अनुसार बाबा रामदेवजी के तीन रानियां थी।

1. रानी तारादे :- नागोर परगने के ग्राम बसवाणी के दैया संग्रामसिंहजी की पुत्री जिसके कोई सन्तान नहीं हुई। कहा जाता है कि रानी तारादे ने रामदेवजी से बहुत पहले ही जीवित समाधि ले ली थी।

2. रानी नेतलदे :- जो तनोट के राव पाऊभाटी पर्बतसिंहजी की बेटी थी। इनके दो पुत्र – सादोजी तथा देवराजजी हुए और एक पुत्री चांद कंवर हुई।(संदर्भ सूची-10)

3. रानी कळुकंवर :- यह अमरकोट के राणा कंवरपाळजी सोढ़ा की पुत्री थी। इनके पांच पुत्र हुए – गजराजजी, महराजजी (मेहराजजी) भींवोजी, बांकोजी और जेतोजी। रानी नेतलदे से उत्पन्न सादोजी तंवर के वंशज वर्तमान में रामदेवरा से लगभग 8 कोस (25 कि.मी.) दूर सादा नामक गांव में स्थापित हैं तथा देवराजजी तंवर के वंशज रामदेवरा में रहते हैं। रानी कळुकंवर से उत्पन्न बेटों का वंश नहीं चला।।

रिणसी:

इन्हें रणसी अथवा रैणसी के नाम से भी पुकारा जाता है। कुछ दन्तकथाओं में इन्हें अनंगपाल तोमर का लधु भ्राता बताया जाता है, जो कि नितान्त भ्रामक है। इनका जन्म अनंगपाल (द्वितीय) की छठी पीढ़ी में हुआ। इनके पिता का नाम जोगराज था। रिणसी के विषय में अनेक लोककथाएं प्रचलित है।

एक लोक-कथा के अनुसार मुसलमानों के प्रति आक्रोश के कारण रिणसी लुटेरे बन गए और मुसलमानों को लूटना प्रारम्भ किया। एक दिन इन्होंने किसी हिन्दू ऋषि को मुसलमान समझकर लूटा, जिसके शाप से इनके शरीर में कुष्ठ रोग उत्पन्न हो गया।

ऋषि अनेक स्थानों का भ्रमण करते हुए अन्त में तुंमरावटी के ‘दूदू’ नामक गांव के समीप एक पहाड़ी पर आश्रम बनवा कर वहीं निवास करने लगे।

दूदू गांव में ही खिवण नामक एक भगवत्-भक्त रहता था जो जाति से मेघवाल था, जो नित्य प्रति नियमपूर्वक ऋषि के आश्रम पहुँच कर उनकी सेवा किया करता था।

कुष्ठ रोग से पीड़ित रिणसी को कहीं आश्रय नहीं मिला। इधर-उधर भटकते हुए | रिणसी एक दिन दूदू गांव के तालाब पर पहुंच गये। उसी समय एक स्त्री पानी का घड़ा भर कर जाने लगी। हवा से पानी की कोई बूंद रिणसी के शरीर पर पड़ी जिससे उन्हें शीतलता का अनुभव हुआ, उसके तन की पीड़ा और जलन कुछ कम हुई। इस चमत्कार से प्रभावित होकर रिणसी उसी औरत के पीछे-पीछे उसके घर तक पहुँच गये। पूछने पर ज्ञात हुआ कि वह भक्त खिंवण का घर था, तथा वह स्त्री भक्त खिंवण की धर्म-पत्नी थी। रिणसीजी की करुण कहानी सुनकर खिंवण ने दयार्द्र होकर उन्हें अपने यहां आश्रय दिया तथा कष्ट-निवारण हेतु उन्हें अपने गुरु के आश्रम में ले जाने का निश्चय किया।

दूसरे दिन प्रात: रिणसी को अपने साथ लेकर खिंवण अपने गुरु के पास पहुंचा तथा खिंवण की प्रार्थना पर उस ऋषि के आशीर्वाद से रिणसी की काया कंचन हो गई। ऋषि ने ज्यों ही रिणसी को उसके वास्तविक रूप में देखा तो वे कुपित हो गये और खिंवण तथा रिणसी दोनों को ही यह शाप दिया कि तुम दोनों पर एक साथ करौती फिरेगी। उन दोनों ने धैर्य नहीं छोड़ा और रिणसी द्वारा अनजान में हुए अपराध के विषय में निवेदन किया। वस्तु-स्थिति जानकर ऋषि पुन: प्रसन्न हुए और रिणसी तथा खिंवण दोनों को यह आशीर्वाद प्रदान किया कि वैष्णव धर्म के प्रचार में ही तुम्हारा बलिदान होगा। जब तुम्हारे ऊपर करौत फिरेगी तो रक्त के स्थान पर तुम्हारे शरीर से दूध की धारा निकलेगी। तुम्हारें शिर पुष्प के रूप में परिणित होकर ईश्वर के चरणों में चढ़ेंगे। यह आशीर्वाद प्राप्त करके इन्होंने जब वैष्णव धर्म का प्रचार शुरू किया तो लोग इनसे खूब प्रभावित हुए और इनके शिष्यों की संख्या बढ़ने लगी। यह बात जब बादशाह के धर्म-गुरु अजमेर निवासी कतीबशाह को ज्ञात हुई तो उसने रिणसी तथा उसके मित्र खिंवण मेघवंशी को कैद कर लिया। साथ ही अन्य हजारों हिन्दू साधुओं को कैद किया। बादशाह ने रिणसी और खिंवण से हिन्दू धर्म को छोड़कर मूस्लिम धर्म स्वीकार करने के लिए खूब कहा किन्तु वे न माने और अन्त में इन दोनों की गर्दनें करौत से काट दी गई। कहा जाता है कि उस समय इनकी गर्दन से रक्त न बहकर दूध की धार निकली तथा इनके शीष वहां नहीं गिरे।

इस लोक-कथा की पुष्टि बाबा रामदेव सम्बन्धी लोक-काव्य तथा कुछ हस्तलिखित वार्ताओं की प्रतियों से भी होती है। निष्कर्षत : यह कहा जा सकता है। कि रिणसी कट्टर वैष्णव थे और मुसलमानों के विरुद्ध संघर्ष करते हुए वैष्णव धर्म की रक्षार्थ वीर-गति को प्राप्त हुआ।

अजमालः

रिणसी के आठ पुत्र थे जो ग्राम नरेणा में रहते थे। उन दिनों दिल्ली पर मुसलमानों का शासन था। धार्मिक झगड़े अपनी सीमा पार कर चुके थे। कुछ मुल्ला और काजी जो रिणसी से चिढ़े हुए थे, उन्होंने बदला लेने की भावना से दिल्ली के बादशाह को बहकाया और नरेणा पर आक्रमण करवा दिया, जिसमें रिणसी के छः पुत्र शहीद हो गए। शेष दो पुत्र अजमाल और रूपजी नरेणा छोड़ कर पश्चिमी राजस्थान में आ गये।(संदर्भ सूची-11)

तुंवरों के भाटों की बही के अनुसार अनंगपाल द्वितीय के पुत्र अमजी पाटण छोड़कर ऊंडू-कासमीर आये थे और इन्हीं के वंश में रिणसी हुए। इससे यही सम्भावना प्रतीत होती है कि रिणसी और उनके आठों पुत्रों की जन्मस्थली भी ऊंडू कासमीर ही थी। परन्तु यह भी सम्भव है कि इन्होंने यहां से जाकर जयपुर के आस-पास दूदू आदि कुछ गांवों पर अपना आधिपत्य कर लिया हो तथा वहीं इन मुसलमानों द्वारा आक्रमण होने पर छ: भाई वीर-गति को प्राप्त हुए एवं अजमाल तथा रूपजी छांहण बारू की तरफ पश्चिमी राजस्थान में लौट आये।

जयपुर के आस-पास कई गांवों पर तुंवरों का राज्य निश्चित रूप से रहा था। दूदू और उसके आस-पास के गांवों का क्षेत्र आज भी तुंवरावटी के नाम से जाना जाता है।

मैणादे:

अजमाल से सम्बन्धित एक लोक-कथानुसार उन दिनों जैसलमेर में राजा अजयसिंह भाटी का राज्य था जिसकी पुत्री आंखों से अन्धी तथा पैरों से पंगु थी। अजमाल की दयालुता, उदारता तथा धर्म-परायणता से प्रभावित होकर राजा अजयसिंह ने ‘मैणादे’ का ‘नारियल’ अजमालजी को भेजा।

मैणादे के अन्धे होने का रहस्य छुपा लिया। बारात के आने पर राजा अजयसिंह भाटी एवं उनके सम्बन्धियों को चिन्ता हुई कि रहस्योद्घाटन के पश्चात् इसे धोखा समझ कर वर-पक्ष वाले कहीं युद्ध न करें, किन्तु आश्चर्यजनक घटना यह हुई कि अजमाल के साथ मैणादे का पाणिग्रहण करते ही उसकी काया कंचन जैसी हो गई, अन्धता व पंगुता भी दूर हो गई। यह भी कहा जाता है कि पोकरण नगर मैणादे को दहेज में दिया गया था।

अजमाल और मैणादे से सम्बन्धित यह कथा लोक परम्परा में तो सुनाई पड़ती है। किन्तु लोक गीतों में इस कथा का उल्लेख नहीं मिलता है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह कथा असंगत प्रतीत होती है, क्योंकि जैसलमेर के राजाओं की वंशावली में अजयसिंह नाम ही नहीं मिलता है तथा मारवाड़ के इतिहास के अनुसार – ‘ख्यातों में लिखा है। तुंवर रिणसी के पौत्र (अजमाल के पुत्र) रामदेव ने तुंवरावटी (जयपुर राज्य) की तरफसे आकर पोकरण पर अधिकार कर लिया था। कुछ वर्ष बाद उसने अपनी भतीजी (या कन्या) का विवाह रावल मल्लिनाथ के पौत्र (जगमाल के पुत्र) हम्मीर से किया जब पोकरण उसे दहेज में दे दिया, और स्वयं वहां से पांच मील उत्तर ‘रुणेचे’ में जा बसा। वहीं पर उसकी और उसके पूर्वजों की समाधियां बनी हैं। उनमें से एक पर कुरान की आयत खुदी है। उसमें ईशवर की सर्व-शक्तिमत्ता का वर्णन है। भादों सुदी 11 को वहां पर बड़ा मेला लगता है और दूर-दूर से लोग यात्रार्थ आते हैं। यह रामदेव रामसापीर के नाम से प्रसिद्ध है और उसके वंशज मरने पर जलाए जाने की बजाय गाड़े जाते हैं।(संदर्भ सूची-12)

श्री जगदीशसिंह गहलोत ने ‘तंवर वंश का परिचय देते हुए अपने इतिहास ग्रन्थ में लिखा है – यह लोग अपने को पाण्डव वंशी मानते हैं। इनका राज्य 9वीं से 12वीं सदी तक दिल्ली में रहा। ये कन्नौज के पड़िहारों के मातहत थे। तंवर राजा अनंगपाल (दूसरे) ने संवत् 1109 में दिल्ली बसाई। अजमेर के पृथ्वीराज चौहान का अनंगपाल तंवर के गोद जाना भाटों ने लिखा है पर यह मनघड़न्त है। वास्तव में अजमेर के चौहान राजा बीसलदेव ने वि.स. 1220 (1163 ई.) के आस-पास दिल्ली जीत ली थी। (नागरी प्रचारिणी पत्रिका, अंक 1, पृ. 405 सं. 1997), और चौहानों का राज्य भी 30-35 वर्ष ही दिल्ली पर रहा और मुहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज को मार कर दिल्ली ले ली। जयपुर राज्य का एक भाग अब तक तंवरावटी कहलाता है। सं. 1432 में वीरसिंह तंवर ने ग्वालियर का किला जीत लिया जो करीब 180 वर्ष तक उसके वंशजों के अधिकार में रहकर फिर मुसलमानों के हाथ में आ गया।

इन दोनों इतिहासकारों के अनुसार जयपुर राज्य का एक भाग तंवरों के अधिकार | में रहा था। पं. विश्वेश्वर नाथ रेउ के अनुसार यहीं से जाकर रामदेवजी ने पोकरण पर अधिकार कर लिया था। यद्यपि रेउजी के इतिहास का यह तथ्य भी प्रामाणिक नहीं है। उन दिनों पोकरण रावल मालजी (मल्लीनाथ) के अधीन था तथा उनकी आज्ञा पाकर रामदेवजी ने भैरव राक्षस के आतंक से सूनी पड़ी हुई इस नगरी को पुनः बसाया था।

“रामदे रावळ माला ने कह्यौ आ पोकरण नानगा छाबड़ा वाळी सूनी नगरी पड़ी छै, थे कहौ तो म्है वासां। तरै मालै कह्यौ उठे तो राषस भैरवौ रसै छै। तरै रामदे कह्यौ ‘म्है उण सुं समझ लेसां, थे दुवौ देवौ तरै मालदे दुवो दीयौ। रामदे पोकरण वासी।”
(संदर्भ सूची-13)

इन सभी ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर जैसलमेर के राजा द्वारा अजमाल को दहेज के रूप में पोकरण का राज्य देने की बात बिल्कुल असत्य सिद्ध होती है। तंवर वंश के परिचय से संबंधित कुछ पंक्तियां एक वांणी में इस प्रकार है :

“दिल्लड़ी तखत हूं उतर ग्वालियर,
पौढ़ी पोकरण थाई।
विरेजी रै बहन बधावै आई,
हरख घणो म्हारै मन मांही।।”

अर्थात् तुंवरों का राज्य पहले दिल्ली पर रहा, वहां से हटने के बाद ग्वालियर और पोकरण पर रहा। पोकरण में ही रामदेवजी के विवाह के अवसर पर उनकी बहिन सुगणा भाई के बधावे में आई। इन पंक्तियों से पोकरण पर रामदेव तुंवर का राज्य होना स्पष्ट होता है। वस्तुतः रामदेवजी के पिता अजमाल को जैसलमेर के किसी राजा द्वारा पोकरण दहेज के रूप में नहीं मिला था। अजमाल का ससुराल निश्चित रूप से जैसलमेर के राज-घराने में नहीं था अपितु, (भाटियों का क्षेत्र) के किसी ग्रामवासी भाटी जाति के राजपूत घराने में था।

एक राजस्थानी वार्ता के अनुसार अजमाल छांहण-बारू नामक गांव की ओर आकर रहे थे, यहां पर ‘पमो धोरंधार’ नामक बुध भाटी का गढ़ था, जिसका राज्य क्षेत्र करड़े-पोचीडे तक था। पम्मे धोरंधार को लोगों ने कहा कि किसी व्यक्ति ने आकर गाड़ियां (बैलगाड़ियां) छोड़ी हैं और उसके पास खूब धन है, इस पर पमो धोरंधार ने अजमाल जी पर आक्रमण किया किन्तु उन्हें अजमालजी के शिविर के चारों तरफ ताम्रकोट दिखाई दिया जिसे भेदा नहीं जा सकता था। इस चमत्कार के कारण पम्मा धोरंधार अजमालजी को सिद्ध पुरुष समझकर लौट गया तथा दूसरे दिन ये लोग अजमालजी से मिले एवं अपनी पुत्री का विवाह उनके साथ किया।(संदर्भ सूची-14)

निष्कर्ष के रूप में यहीं कहा जा सकता है कि जैसलमेर के राजा द्वारा अपनी पुत्री का विवाह अजमाल के साथ करना और दहेज में पोकरण देना यह भ्रामक है। वस्तुतः तुंवरावटी से जब अजमाल जी अपने छोटे भाई रूपजी के साथ इस क्षेत्र में आये तो ‘भाटीपा’ के गांव (छांहण-बारू) के भाटियों ने उनको लूटने के दृष्टिकोण से उनका पीछा किया किन्तु परिचय के पश्चात उनके मोहक स्वभाव तथा आकर्षक व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनके नेता पम्मै धोरंधार (बुध खांप के भाटी) ने अपनी पुत्री ‘मैणादे’ का विवाह अजमाल के साथ कर दिया।

मैणादे की पंगुता और अन्धापन भी वास्तविक तथ्य नहीं अपितु लोक-कथा की कथानक-रूढ़ि ही प्रतीत होती है, क्योंकि बाबा रामदेव जी की धर्मपली ‘नेतलदे’ के विषय में भी यही प्रचलित है कि वह पंगु थी किन्तु रामदेव जी के साथ विवाह मण्डप में बैठने पर उनके स्पर्श मात्र से उनकी पंगुता जाती रही –

पहलो फेरो न दूजो फेरौ,
तीजे मरहम पाई।
दलजी सोढे री बाई पांगळी.
बा खोड़ निजर नहीं आई।

इसी प्रसंग से प्रेरित होकर श्रद्धालु भक्तजनों ने रामदेवजी के पिता अजमाल के विवाह प्रसंग से सम्बन्धित कथा में ‘मैणादे’ को भी अंधी और पंगु होने की बात जोड़ दी, अथवा यह चमत्कार इन लोक-कथाओं में कथानक रूढ़ि के रूप में प्रयुक्त हुए हैं।

क्रमश पोस्ट….

बाबा रामदेवः इतीहास एवं साहित्य
लेखकः प्रो.(डॉ.) सोनाराम बिस्नोई
पूर्व अद्य्यक्ष राजस्थानी विभाग
जयनारायण व्यास वश्व विदद्य्यालय-जोधपुर
पूर्व अद्य्यक्ष राजस्थानी भाषा
साहित्य एवं संस्कृति अकादमी-बिकानेर
————————————————————–
(संदर्भ सूची-1):
1. (1) श्री रामदेवजी महाराजकृत चौबीस प्रमाण-सम्पादक स्वामी श्री गोकुलदासजी, अलख स्थान डूमाड़ा (अजमेर), प्रकाशक सेवादास ‘ऋषि’, डूमाड़ा (अजमेर)। |

(2) श्री रामदेवजी महाराजकृत चौबीस प्रमाण – सम्पादक व प्रकाशक श्री शंकरपुरी गोस्वामी, ग्राम बांसा (मारवाड़)।

(3) श्री रामदेव निजमुख प्रमाण (चौबीस प्रमाण) – संग्रहकर्ता गजानन्द शर्मा ‘प्रभाकर’, प्रकाशक फूलचन्द बुकसेलर, पुरानी मण्डी, अजमेर।

2. (1) भजन.विलास, प्रकाशक सेवादास ‘ऋषि’, अलख स्थान डूमाड़ा (अजमेर)।
(2) धारू-माल-रुपाद की बड़ी वेल, संग्रहकर्ता, लेखक व प्रकाशक स्वामी गोकुलदासजी, डूमाड़ा (अजमेर)।

3. मान-पद-संग्रह भाग 3 – सम्पादक रामगोपालजी मोहता, बीकानेर।

4. सोढ़ायण – सम्पादक डॉ. शक्तिदान कविया, प्रकाशक – राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर।

(संदर्भ सूची-2):
–1.
(1) मध्यकालीन राजस्थानी साहित्य में बाबा रामदेवजी तंवर – मूलचन्द ‘प्राणेश’, वरदा वर्ष 14, अंक 2, पृ. 7-28 (शोध निबन्ध, गीत व छन्द)।
(2) पश्चिमाधीश छन्द का रचयिता कवि विदुर अथवा वुदर, मूलचन्द प्राणेश’, शोध पत्रिका, वर्ष 22, अंक 3, पृ. 57-62.
(3) पश्चिमाधीश – डॉ. मनोहर शर्मा, शोध पत्रिका, वर्ष 23, अंक 3, पृ. 99-100.
(4) रूपांदे का जीवन संगीत – डॉ. मनोहर शर्मा, मरु-भारती, वर्ष 5, अंक 3, पृ. 17-19.
(5) राजू तेली री राम रिछ्या (पद) – मरु-भारती, वर्ष 8, अंक 1, पृ. 35.
(6) आदर्श साहित्य प्रेमी – शिवसिंह चोयल, मरु-भारती, वर्ष 8, अंक 1 (रामदेवजी का पद एवं
मेगड़ी पुराण)।
(7) रामदेव तंवर की वात – डॉ. मनोहर शर्मा, शोध पत्रिका, वर्ष 28, अंक 3-4.
(8) सन्त कवि हरजी भाटी – सोनाराम विश्नोई, वरदा, वर्ष 21, अंक 4 (शोध निबन्ध)।
(9) बाबा रामदेव : अछूतोद्धारक और हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रतीक – सोनाराम विश्नोई, राजस्थान
पत्रिका, 3 सितम्बर, 1971.
(10) सवर्ण-हरिजन-मुसलमानों की एकता का प्रतीक : रामसापीर- यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’,राजस्थान
पत्रिका 10, दिसम्बर 1978.।

2.
(1) तुंवर वंश का संक्षिप्त इतिहास – जोगीदान बारहठ, पृ. 17.
(2) राजस्थान का इतिहास – कर्नल टॉड, हिन्दी अनुवाद केशव कुमार ठाकुर, पृ. 144.
(3) मारवाड़ का इतिहास – पं. विश्वेश्वर नाथ रेउ , पृ. 107-108.
(4) राजपूताने का इतिहास, पहला भाग – जगदीश सिंह गहलोत, पृ. 20.
(5) मारवाड़ रा परगनां री विगत, भाग -2- मुहता नैणसी, पृ. 291-293.

(संदर्भ सूची-3):
1.
(1) वात तुंवरा री – अनूप संस्कृत ग्रंथालय, बीकानेर, ग्रंथांक 206/2, पृष्ठ संख्या 10-12
(2) वात रणसी तुंवर री – अनूप संस्कृत ग्रंथालय, बीकानेर (राजस्थानी) इतिहास (वातां ) सं. 213/9.
(3) राव मलीनाथ पंथ में आयो तै री वात – अनूप संस्कृत पुस्तकालय, बीकानेर, ग्रंथ संख्या 213,
पत्र संख्या 203-205.
(4) वात रामदेव तंवर री – हस्तलिखित मूल प्रति अनूप संस्कृत ग्रंथालय, बीकानेर में सुरक्षित है। प्रतियां आचार्य नरोत्तमदासजी स्वामी तथा श्री अगरचन्दजी नाहटा के निजी पुस्तकालयों में उपलब्ध हैं।

2, श्री अगरचन्दजी नाहटा के सौजन्य से प्राप्त बड़े उपाश्रय की प्रति से प्रतिलिपि की गई, जो प्रस्तत ग्रंथ
के परिशिष्ट भाग-ख में प्रकाशित की है, देखिये छंद सं. 3.

3. आरकाईज, बीकानेर, वं. 75, पु. 3, पृ., 58 द्वारा की गई प्रतिलिपि प्रस्तुत ग्रंथ के परिशिष्ट भाग| ख में प्रकाशित है, देखिये छंद सं. ५.

4. श्री अगरचन्द जी नाहटा के सौजन्य से प्राप्त बड़े उपाश्रय की प्रति से प्रतिलिपि की गई जो | भाग-ख में प्रकाशित है, देखिये छंद सं. 4.

5. – वही – देखिये परिशिष्ट, भाग-ख, छंद सं. 6.
6. – वही – देखिये परिशिष्ट, भाग-ख, छंद सं. 1.
7. – वही – देखिये परिशिष्ट, भाग-ख, छंद सं. 2.
8. अनूप संस्कृत ग्रन्थालय, बीकानेर, ग्रंथांक-277 (ख), पृ. 133 से प्रतिलिपि की गई. परिशिष्ट भाग ख।

(संदर्भ सूची-4):
1. अनूप संस्कृत ग्रंथालय, ग्रंथांक – 70, पृ. 65 द्वारा प्रतिलिपि की गई, परिशिष्ट भाग-ख में है। ये । | अपेक्षाकृत बाद के हैं, देखिये छंद सं. 8.
2. यही ग्राम हरजी भाटी का साधना स्थल है। (जोधपुर जिलान्तर्गत ओसियां तहसील का ग्राम बैठवासिया ही पंडितजी की ढाणी के नाम से जाना जाता है)।
3. प्रस्तुत ग्रंथ के परिशिष्ट भाग-क में प्रकाशित।

(संदर्भ सूची-5)
1 (क) वेद वेदान्त समझो सोई धर्म भूल मत जाई।
अजमाल सुत रामदे बोले मात मैणादे पाई।।
रामदेवजी, परिशिष्ट भाग क, अभय प्रमाण, बांणी सं. 12.

(ख) अजमल घर अवतार लियो, सेवगां तणी सदा पृथीपाळ।
हरजी भाटी, प्रस्तत शोधग्रंथ का परिशिष्ट, भाग-क, बांणी सं.31.

(ग) देवसी अरज करै अजमाल रा, म्है बाळक बुध भोळो।
देवसी माळी, प्रस्तुत शोधग्रंथ का परिशिष्ट भाग-क, बांणी सं. 83.

(घ) हमकोड़ी अरज सुणो अजमाल जी रा, अरे धणियां बिना खबर कुण लेसी।
धेनदासजी, प्रस्तुत शोधग्रन्थ का परिशिष्ट भाग-क, बांणी.सं.91.

(ङ) सोवणी द्वारका अलख पधारिया, घर अजमाल अवतार लियो।
हीरानन्द माळी, परिशिष्ट भाग-क, बांणी सं. ८१.

(च) रात दिनां पीरजी नै घड़ी न भूलें, आवोजी द्वारका रा नाथ अजमाल रा। । सांयरोजी, परिशिष्ट भाग-क, बांणी सं. 98.

2

(क) अवधूत प्रसन्न हुए इम आख्योय तूझ घरै – व्है पुत्र तरे।
अजमाल सुजाव धिनौ अवतारिये कीरत थारीये देव करै।।3।।
वरदा, वर्ष 14, अंक 2, पृ. 20, देखिये परिशिष्ट भाग-ख, सं. 5 (मूल प्रति आरकाईज, बीकानेर वं. 75 पु. 3, पृ. 588)

(ख) सरसत सामण तुझ पाएजी लागू, जाणू तो बुध घणेरी मांगू।
रामसापीर रो कहूँ सिलोको, एक मना थे सांभलो लोको।।1।।
खांप रो तुंवर अजमाल रो कुंवर, पीर पश्चिम रो पातसाह कहीजै।
हुकम हुवै तो चाकरी कीजै – रूड़ौ तौ गांव रूणीचौ कहीजै ।।2।। अबीरचन्द रचित रामदेवजी रो सिलोको, हस्तलिखित प्रति, अनूप संस्कृत ग्रन्थालय, बीकानेर, ग्रंथांक 277 (व) पृ. 133, द्वारा की गई प्रतिलिपि परिशिष्ट (भाग-ख) सं. 1.

(ग) रामसाह जण आपरा सरण सदा गरज।
‘वासव वळ बांधण धणी उपयंद करी अरज।।4।।
देव किसी अरदास रामसाह’ तो यूं करूं।।
विधि सगळी विसवास आप तणे अजमाल उत।।5।।
गजसिंह महाराजा (बीकानेर) द्वारा रचित ‘रामदेवजी रा सोरठा, मूल प्रति अनूप संस्कृत ग्रंथालय, बीकानेर, ग्रंथांक 70, पृ. 65, प्रतिलिपि परिशिष्ट भाग-ख सं. 8.

(संदर्भ सूची-5):

1. रणसी रौ राज्य गयौ पण धरम छोड़ियों नहीं हूं बहुत धरम करतां सर्व मताह खायनै हालियो वांसे बेटो अजमाल नामें नू राखियों।…तठे अजमाल तो गाडा लै अर पोकरण आयो अर रणसी कासी करवत लैय नै मूवो छे। अजमाल रै रामदेव हुवो।।
– बात रणसी तुवर री।
– अनूप संस्कृत ग्रंथालय (राजस्थानी) इतिहास (वार्ता) ग्रंथांक 213/9 द्वारा की गई प्रतिलिपि प्रस्तुत शोध ग्रंथ के परिशिष्ट (भाग-ग) में सं. 2 पर प्रकाशित।

2. (क) सालरसी तंवर दिली रो पातसा हुवो। सालरसी रो बेटो रैणसी हुवो। तिण पातसाही छोड़ आपरा मन सू कासी करवत लियो। पछै रैणसीजी रो बेटो अजैसीजी उवा जागा छोड़ वारू छांह आया।… पछै उठा सू गाडा जोत नै चालिया तिकै पोहकरण सू तीन कोस माथै गाडा छोड्यो। उठे अजैसीजी रे बेटो जायो। नाम उण रो वीरमदेव दियो। कितरे क दिनै गाडा पोहकरण सू कोस दोय आर ले जाय छोडिया। उठे रामदेवजी रो जनम हुवो।।
– वात रामदेवजी तंवर री।
(शोध-पत्रिका वर्ष 28, अंक 3-4, पृ. 51 – डॉ. मनोहर शर्मा), हस्त लिखित प्रति अनूप संस्कृत ग्रंथालय, बीकानेर में सुरक्षित। प्रस्तुत शोध ग्रंथ के परिशिष्ट (भाग-ग) में सं. 3, पर प्रकाशित।

(ख) सलारसी तुंवर दिली रो पातसा उतो। सु सलारसी रो बेटो रीणसी सु पातसाह आप री मन री खुसी जायनै बरै थान सु कासी करवत लीयो देही बहरी। ताहारां माहा दुघ नीसरियो लोही री बंद न पड़ी पछै रिणसी जी रो बेटो अजैसीजी। उवा जागा छाड़ छांहण बारू दीसी आया।
-वात तुंवरा री।
अनूप संस्कृत ग्रंथालय, ग्रंथांक 206/5 पृ. 10-12, प्रतिलिपि प्रस्तुत शोध ग्रंथ परिशिष्ट भाग-ग, सं. 1. पर प्रकाशित।।

3. …..राजस्थान के पश्चिमी भू-भाग का ऊडू-कासमेर के निकट बाबा रामदेव का अवतरण हुआ। इनके पिता का नाम तंवर अजैसिंह तथा माता का नाम मैणादे अथवा मैणलदे था। ”
– मध्यकालीन राजस्थानी साहित्य में बाबा रामदेवजी तंवर, मूलचन्द ‘प्राणेश’ वरदा, वर्ष 14, अंक2, पृ. 17.

(संदर्भ सूची-6):
1. परिशिष्ट भाग क, बाणी सं. 33, हरजी भाटी।

2. (क) माता मैणादे करै आरती-हाथा ले झारी।
– हरजी भाटी, परिशिष्ट-क, बाणी सं. 67.

(ख) सांयरो भणै सिद्ध रामदेवजी बोलीया।
माता मैणादे रा लाल अजमाल रा।।
– सांयरोजी, परिशिष्ट-क, बाणी सं. 98. ।

3. (क) तंवरा में टिकायत सिद्ध,
रामदेवजी बोल्या, ओ बाबाजी।
हाथां लाधो माणकियो मत खोवौ रै बीरा।।
– मरु भारती, वर्ष-5, अंक, पृ.17.

(ख) माता मैणादे री आस पूरवो,
संता ने तारण ‘तुंवर’ तमा।
– हरजी भाटी, परिशिष्ट-क, बाणी सं. 65.

(ग) मधुरा बीणा मेळे बाजीया,
तुंवरां तणो दरबार।।
– विजोजी सांणी, परिशिष्ट भाग-क, बाणी सं. 72.

(घ) पिछम द्वारका सू रमदेवजी पधारिया,
भलो हुयो तुंवरा रो।
– महाराजा मानसिंह, परिशिष्ट-क, बाणी सं. 95.

(ङ) खांप रो तुंवर अजमल रो कुंवर,
पीर पश्चिम रो पातसाह कहीजै।।
– रामदेजी रो सिलोको, अनूप संस्कृत ग्रंथालय, बीकानेर, ग्रंथाक 277 (ख) परिशिष्ट भाग-ख, सं.1.

(संदर्भ सूची-7):
1. तंवर वंश का संक्षिप्त इतिहास – जोगीदान बारैठ (कविया)।
2. वही – पृ. 12-16.
3. राजस्थान का इतिहास-कर्नल टॉड, हिन्दी अनुवादक, केशव कुमार ठाकुर, पृ.144. |
4. तंवर वंश का संक्षिप्त इतिहास – जोगीदान बारेठ (कविया) पृ. 17.
5. तुंवरों के भाटों की बही, ग्राम आसलपुर-जोबनेर। ।
6. वंशावली का आधार तुंवरों के भाटों की बही और ‘तंवर वंश का संक्षिप्त इतिहास’ है।
7. अर्जुन की भार्या सुभद्रा (श्रीकृष्ण की बहिन) के गर्भ से महा-पराक्रमी पुत्र अभिमन्यु का जन्म हुआ । जो महाभारत के युद्ध में चक्रव्यूह भेद कर वीरगति को प्राप्त हुआ।
8. अभिमन्यु का विवाह राजा विराट की सुपुत्री उत्तरा से हुआ जिसके गर्भ से महाप्रतापी परीक्षित उत्पन्न
हुए, इन्हीं के समय से कलियुग का आविर्भाव माना जाता है।

(संदर्भ सूची-8):
1. जन्मेजय ने नागयज्ञ करके सर्पो का नाश कर पिता का वैर लिया।
2. महाराजा क्षेमक ने हस्तिनापुर छोड़ कांगड़ा में अपनी राजधानी स्थापित की।
3. ये ज्वाला देवी के भक्त थे। इन्होंने कांगड़े के किले का निर्माण करवाया। ये जावला नरेश से पुकारे जाते थे।

(संदर्भ सूची-9):
1. महाराजा तोम के नाम से तोमर (तंवर, तुंवर) वंश चला।
2. अनंगपाल ने वि.स. 736 में पुन : हस्तिनापुर (दिल्ली) पर आधिपत्य स्थापित किया। इनके 22 लघु
भ्राताओं ने इनकी सहायता से अपने अपने नाम पर पृथक-पृथक राज्य स्थापित किये जो क्रमश: इस प्रकार हैं – 2. कोत गढ़, 3. तिजारा, 4. चितमोरी, 5. अचलोर, 6. बोहना, 7. ईडर, 8. बाबोर, 9. धोलपुर, 10. धाट (धाधरा, अमरकोट),11. मोरभंज, 12. मांडू, 13. चन्दीचिनवार, 14, लाहोर, 15. आसेर, 16. पल्लू, 17. भटनेर, 18. खण्डवा, 19. अमरगढ़ 20. कोल, 21. इन्दौर, 22, रणथम्भौर, 23. सिवाना।

(संदर्भ सूची-10):
1. इन्होंने दिल्ली पर अपने राज्यकाल में अनेक संग्रामों में विजय प्राप्त की और चक्रवर्ती सम्राट अनंगपाल के नाम से प्रसिद्ध हुए, इन्होंने अपनी स्मृति में एक सर्वधातु का स्तम्भ बनवाया जो आज दिन पर्यन्त किली अथवा ‘अनंगपाल की लाठ’ के नाम से प्रसिद्ध है। ये दिल्ली पर अन्तिम तोमर वंशीय राजा हुए जिन्हें दिल्ली के अन्तिम कुरु वंशीय सम्राट भी कहा जा सकता है।
2. रामदेवजी के ज्येष्ट पुत्र सादोजी के वंशज वर्तमान में रामदेवरा (रूणीचा) के पास ही सादा नामक
गांव में रहते हैं।
3. देवराजजी के वंशज वर्तमान में रामदेवरा में रहते हैं।

(संदर्भ सूची-11):
1. (क) रामदेवजी आगे डाळल बाई सीघा, रिणसी आगे खींयो मेघवाळ।
कासी जाय करवत झेलीया, दूधां बूठा, अमी, फुवार।।1।।
देवसी माळी-परिशिष्ट भाग-क, बांणी सं. 86
(ख) तद् रिणसी गाडा जोड़ाय नै हालिया तद् रिणसी आप री वसी, बहू, बेटो तो पोहकरण मेल्हिया
अर आप कासी गयो। तटै अजमाल तो गाडा लै अर पोकरण आयो अर रणसी कासी करवत लैय ने मुंवो छै।
– ‘वात’ रणसी तूंवर री’ – अनूप संस्कृत ग्रन्थालय (राजस्थानी) इतिहास (वाता) सं. 213/9, परिशिष्ट, भाग-ग, सं. 2.
2. तुंवरों के भाटों की बही के अनुसार।
3. यह ग्राम अजमेर तथा फुलेरा के बीच स्थित है।

(संदर्भ सूची-12):
1. कुछ लोक-कथाओं में अजमाल के इस भाई का नाम धनरूपजी कहा जाता है, जो सही नहीं है, कारणकि तुंवरों की वंशावली में रूपजी नाम ही लिखा है।

(संदर्भ सूची-13):
1. मारवाड़ का इतिहास – पं. विश्वेश्वर नाथ रेउ, पृ. 107-108.
2. राजपूताने का इतिहास, पहला भाग – जगदीशसिंह गहलोत, पृ. 20.
3. मुहता नैणसी कृत – मारवाड़ रा परगनां री विगत, भाग 2, पृ. 291.

(संदर्भ सूची-14):
1. परिशिष्ट भाग – क, बांणी सं. 53
हरजी भाटी – (रामदवेजी रौ बधावो)।

2. ‘पछै रिणजी रो बेटो अजैसी जी ऊवा जागा छाड़ छांहण बारू दीसी आया। अटै पमो घोरअंधार बुध भाटी अटै इहां रो कोट थो। कीरड़े वहांण (छांहण) बारू बीचै इहां रो राज हतो औ रहता तीये गंवरी बावड़ी। अटै पमो राज घोरअंधार करतो तो। अटै आय अजैसी जी गाडा छाड़ाया। इहां कनै माल बीजो घणो थी। लोकां दीठो जाय पमैनु कही। केई लोक उतरीया छै इहां कन्है माल घण छै। ताहरां चढ़ इहां पर आया। देखै तो दोळो तांबे रो कोट छै ताहरां पमै दीठो कोई सीधवंत पुरुष छै। पमो पाछो गयो दूसरे दिन इये सु मीलण गया मीलीया। अजैसी नु बेटी परणाई।’
-वात तुंवारी, अनूप संस्कृत ग्रंथालय, बीकानेर – ग्रन्थ सं. 206/2, पृ. 10, परिशिष्ट भाग (ग), सं. 1.

————————————————————
बाबा रामदेवः इतीहास एवं साहित्य
लेखकः प्रो.(डॉ.) सोनाराम बिस्नोई
पूर्व अद्य्यक्ष राजस्थानी विभाग
जयनारायण व्यास वश्व विदद्य्यालय-जोधपुर
पूर्व अद्य्यक्ष राजस्थानी भाषा
साहित्य एवं संस्कृति अकादमी-बिकानेर

error: Content is protected !!