बाबा रामदेव पीरजी का जीवनवृत्त

बाबा रामदेवः इतीहास एवं साहित्य मे से प्रस्तुती
लेखकः प्रो.(डॉ.) सोनाराम बीसनोई

बाबा रामदेवजी का जन्म स्थान:

बाबा रामदेवजी का जन्म स्थान विवादस्पद विषय है। कुछ ऐतिहासिक ग्रंथों में आये रामदेवजी से सम्बन्धित प्रसंगों, हस्तलिखित वार्ताओं, जन प्रचलित लोक-कथाओं तथा लोक-काव्य में रामदेवजी के जन्म स्थान के विषय में मतभेद है। रामदेवजी के जन्म स्थान के रूप में कुल मिलाकर निम्नलिखित स्थानों का उल्लेख मिलता है :

1. तुंवरावटी

2. दिल्ली

3. उडू-काहमीर

4. पोकरण

5. रूणीचा (रामदेवरा)

1. तुंवरावटी

पं. विश्वेश्वरनाथ रेउ द्वारा लिखित मारवाड़ के इतिहास की पाद टिप्पणी के अनुसार तुंवरावटी की तरफ से आकर रामदेवजी ने पोकरण पर अधिकार किया था। इस उल्लेख से रामदेवजी का जन्म-स्थान तुंवरावटी लगता है। किन्तु रेउ जी के इतिहास का यह अंश अप्रामाणिक प्रतीत होता है। क्योंकि मुहता नैणसी कृत मारवाड़ रा परगनां री विगत अपेक्षाकृत अधिक प्रामाणिक है, जिसमें आये उल्लेखानुसार महवे के रावळ मल्लिनाथजी के पास से जाकर रामदेवजी ने पोकरण को पुन- बसाया था। इसका अभिप्राय यह हुआ कि रामदेवजी का जन्म तुंवरावटी में नहीं अपितु पश्चिमी राजस्थान में हुआ था।
(संदर्भ सूची-१)

2. दिल्ली

एक हस्तलिखित वार्ता के अनुसार दिल्ली के किसी बादशाह ने रणसी पोकरण का अधिकार दिया और रणसी ने अपनी धर्म पत्नी तथा पुत्र को पोका तथा स्वयं कासी चले गये।

इसी वार्ता के आगे के अंश से ऐसा प्रतीत होता है कि रामदेवजी का जन्म दिल में हुआ – –

”अजमाल रै रामदेव हुवो। ऐ जद दिली छोड़ पोहकरण नू हालिया तद रामदे।एकै साह से भाईचारों हुवो कहियो – रे जद दोहरी वैळां पड़े तद मोनू याद करै, त (तो) हूँ थारी सीहाय करीस। रामदे सिद्ध होतो। रामदे रै कांबड़ियां रो पंथ हुंतो। तद ऐइ तो दिल्ली से हुय अर पोकरण आण बसाई आगै सुनी पड़ी हंती।

बाबा रामदेव सम्बन्धी अन्य हस्तलिखित वार्ताओं तथा लोक-कथाओं एवं काव्य से उनका जन्म स्थान दिल्ली नहीं लगता। केवल उपर्युक्त वार्ता का यह उल्लेख ही उनका जन्म स्थान दिल्ली बताता है जो विश्वसनीय नहीं प्रतीत होता है।

3. उडू-काहमीर

रामदेवजी के जन्म स्थान के बारे में यह लोक-धारणा भी प्रचलित है कि उडूकाहमीर में उनका जन्म हुआ था। परन्तु इस तथ्य की पुष्टि हेतु कोई प्रमाण नहीं है। लोक-कथाओं, हस्तलिखित वार्ताओं, लोक-काव्य (बांणियों) में उडू काहमीर का कहीं भी उल्लेख नहीं है।

4. पोकरण

बाबा रामदेवजी के विषय में जन प्रचलित लोक-कथाओं एवं उनसे सम्बन्धित लोक-काव्य में उनका जन्म-स्थान पोकरण बताया जाता है। द्वारकाधीश से पुत्र प्राप्ति का वरदान लेकर अजमालजी पोकरण आये और यहीं पर रामदेवजी का अवतरण (संदर्भ सूची-2) हुआ। यह प्रसंग प्रस्तुत अध्याय में ही ‘रामदेवजी के आविर्भाव की पृष्ठभूमि’ नामक शीर्षक के अन्तर्गत अपेक्षित विस्तार के साथ प्रस्तुत किया गया है।

5. रूणीचा (रामदेवरा)

18वीं शताब्दी में लिपिबद्ध कुछ हस्तलिखित वार्ताओं में रामदेवजी का जन्मस्थान पोकरण से उत्तर दिशा में 4 मील दूर बताया गया है। यह स्थान रुणीचा अथवा रामदेवरा के नाम से प्रसिद्ध है।

एक वार्ता के अनुसार रामदेवजी के पिताजी अजैसीजी दिल्ली छोड़कर पश्चिमी राजस्थान में वारूछांह नामक गांव आये यहां पम्मे बुध भाटी की जागीरी थी, इसने अपनी पुत्री का विवाह अजैसीजी (अजमालजी) के साथ किया। अजमालजी कुछ दिन वहां रहे – “केइक दिन तांई उठे रहिया। पछे उठा सू गाडा जोत ने चालिया तिके पोकरण यूं तीन कोस माथै गाडा छोड्या। उटै अजैसीजी रै बेटो जायो। नाम उणरो वीरमदेव दियो। तरै वीरम देहरो उण रै नाम बसायो। पोहकरण में भैरव नामै राखस रहै छै। जागां सूनी कीवी। इण दिसी कदै ही कोई आयो नहीं कितरेक दिनै गाडा पोहकरण – सू कोस दोय ऊपर ले जाये छोडिया। उटै रामदेवजी रो जनम हुवो।’

पोकरण से नौ मील की दूरी पर स्थित रामदेवरा से तीन मील दक्षिण में वीरमदेवरा नामक गांव आज भी आबाद है। यह भौगोलिक तथ्य भी उपर्युक्त प्रसंग की पुष्टि करता है। अनूप संस्कृत ग्रंथालय में सुरक्षित एक अन्य हस्तलिखित वार्ता की प्रति ”वात तुवरां री” में भी रामदेवजी का जन्म-स्थान पोकरण से नौ मील दूर स्थित यही रामदेवरा बताया गया है।

लोक काव्य में भी अनेक स्थलों पर रामदेवजी को – ‘पीर पोकरण वाळो ‘राम रूणेचे वाळो’ आदि शब्दों से सम्बोधित किया गया है। यथा – (संदर्भ सूची-3)

‘आयो रे म्हारे पीर पोकरण वाळो,
आयो रे राम रुणीचे वाळो।’

पापी दुसटो ने मार हटाइजौ,
मत करिया धणी टाळौ।

‘ भैरव राक्षस के वध हेतु भी रामदेवजी रूणीचे से ही चढ़े थे –

‘राम रूणीचे सू चढ़िया रामदे,
हाथ भळकियौ भालौ।

पापी दुसटी ने मार हटाइजौ,
मत करिया धणी टाळौ।’

एक प्राचीन हस्तलिखित छंद में भी रामदेवजी का गांव ‘रूणीचा’ बताया गया है। उनका वंश परिचय देते हुए इस छंद में जिस संदर्भ में ‘गांव रूणीचा’ बताया है, उसका स्पष्ट अभिप्राय जन्म स्थान रूणीचा से है –

खांप रो तुंवर अजमल रो कुंवर |
पीर पछिम रो पातसाह कहीजै।

हुकम हुवै तो चाकरी कीजै,
रूडो तो गांव रूणीची कहीजै ।

कवि जालू द्वारा रचित रामदेवजी के छंद में आये ‘रूणीचे’ के प्रसंग से भी इसी तथ्य की पुष्टि होती है –

‘करणी अद्यदेव अजैमल कीधिय, प्रीतमन धार अनंत पंगे।
रूणैचै (हुँत) नितू इकधारण वीठल कारण सेव वगै।।

अभधूत प्रसन्न हुयै इखु आख्योया तुझ घरै हवै पुत्र तरै।
अजमाल सुजाव धिनो अवतारिय कीरत थारिय देव करै।।

रामदेवरा में प्राचीन समय से ही एक कुआ है जिसका नाम ‘रूणीचा’ है। पानी की सुविधा देखकर अजमालजी ने यहां आकर ‘डेरा’ (अस्थायी निवास) किया था। यहीं पर रामदेवजी का जन्म हुआ इसी कारण इस स्थान का नाम ‘रामडेरौ’ (रामदेवरा) रखा गया। आज भी पुरानी पीढ़ी के लोग रामदेवरा नहीं कहकर के ‘रामडेरौ’ ही कहते हैं। ‘रामडेरौ’ शब्द अर्थ की दृष्टि से अधिक सार्थक है। ‘डेरो’ शब्द का अर्थ है ‘गोळवासो’ अर्थात् अस्थायी निवास स्थान। जीवन और जगत को क्षणभंगुर समझने वाले उस युग के लोग निवास-स्थान को ‘डेरो’ या ‘डेरा’ ही कहते थे। आज भी बीकानेर और जैसलमेर में पुरानी पीढ़ी के वयोवृद्ध लोक बड़ी-बड़ी हवेलियों को भी ‘डेरे’ के नाम से ही पहचानते हैं।(संदर्भ सूची-4).

राजस्थान में मनुष्य के नाम पर कूए का नाम और कूए के नाम पर गांव के नामकरण की प्राचीन परम्परा है। मरूस्थल में पानी के अभाव के कारण पानी को बहुत महत्त्व दिया गया है। यही कारण है कि अनेक गांवों के नाम कूओं और तालाबों के नाम पर रखे गये।

‘रूणीचे कूए के कारण इस गांव का नाम ‘रूणीचे’ (रूणीचौ) था और यहां पर रामदेवजी के जन्म तथा निवास के कारण इसका नाम ‘रामडेरौ’ पड़ा। धीरे-धीरे लोगों ने इसे ‘रामदेवरा’ कहना प्रारम्भ कर दिया।

रामदेवजी के विवाह के लिए अमरकोट के सोढ़ों ने इसी ‘रूणीचे’ गांव में नारियल भेजा था –

अमरकोट से आया नाळेरा, गांव रूणीचे मांही।
बड़ा बिरमदे छोटा रामदे ज्यांरी करौ सगाई।।’

उपर्युक्त समस्त विवरण से यह तथ्ये स्पष्ट हो जाता है कि रामदेवजी का जन्म पोकरण से उत्तर पूर्व में नौ मील दूर ‘रूणीचा’ नामक ग्राम में हुआ।

रामदेवजी के आविर्भाव की पृष्ठभूमि:

बाबा रामदेव सम्बन्धी लोक-काव्य, कथाओं के अनुसार अपनी वृद्धावस्था तक अजमाल जी सन्तान-हीन रहे। एक दिन अजमाल जी प्रात:कालीन भ्रमण के लिए वन की ओर जा रहे थे तब उन्हें देखकर कुछ किसान लोग जो खेत जोतने जा रहे थे, अपने-अपने घरों की ओर वापस लौटने लगे। अजमालजी द्वारा पूछे जाने पर उन्होंने बताया कि ‘निपुत्र’ का मुंह देखना अपशकुन होता है, इसलिए वे वापस जा रहे हैं। इस घटना से ही पुत्रहीन अजमालजी को गहरी ठेस पहुंची और वे ग्लानि तथा क्षोभ के मारे पुत्र प्राप्ति के वरदान हेतु वहीं से द्वारका चले गये। (संदर्भ सूची-5).

कहा जाता है कि अजमालजी अपनी व्यग्रता के कारण जूते पहने हुए ही में प्रविष्ट होने लगे तब पुजारी लोगों द्वारा मना किये जाने पर वे उनके प्रति क्रद्ध हो गये और उनको ललकारते हुए उन्होंने एक पत्थर का गोला मूर्ति के सिर पर दे मारा और कहा कि यदि ये भगवान् होते तो इनमें कोई न कोई प्रतिक्रिया अवश्य होती। उनकी इस प्रकार की क्रिया से उन्हें पागल समझ कर पुजारी लोग भयभीत हो गए ओर अपनी प्राण रक्षा के लिए वहां से भाग खड़े हुए। अजमालजी ने दौड़कर उन्हें पकड़ लिया और भगवान् के सम्बन्ध में पूछा। पूजारियों ने शीघ्र मुक्ति की इच्छा से उनसे कह दिया कि भगवान् का निवास सागर में है और उन्होंने अपने भक्त पीपाजी को वहीं दर्शन दिया था। अजमालजी इतना सुनते ही सागर में कूद पड़े और आशचर्य की बात कि पानी ने उन्हें मार्ग दे दिया और वे सागर में नीचे पहुंचे तो उन्हें भगवान् द्वारकाधीश के दर्शन हुए।

वहां भगवान् के सिर पर बंधी हुई पट्टी को देखकर जब अजमालजी ने उसका कारण पूछा तो ज्ञात हुआ कि उन्होंने मूर्ति पर जो पत्थर का गोला दे मारा था उसी से मस्तक पर चोट लग गई है। अपने अपराध का पता लगने पर अजमाल जी ने क्षमायाचना की। द्वारकाधीश प्रसन्न हो गए और अजमालजी से समस्त विवरण जानने के पश्चात् आदेश दिया कि वे अपने बड़े पुत्र का नाम ‘वीरमदेव’ रखें।

पुत्र के पहले ‘बड़े’ शब्द के प्रयोग में अजमालजी को कुछ रहस्य दिखाई दिया और साथ ही उनकी जिज्ञासा भी तीव्र हो उठी कि यदि बड़ा पुत्र वीरमदेव होगा तो छोटा भी कोई अवश्य होगा, तभी तो ‘बड़े’ शब्द की सार्थकता होगी। उनके कुछ पूछने के पूर्व ही द्वारकाधीश ने उनका संशय निवारण करते हुए उनको यह वचन दिया कि वे स्वयं उनके पुत्र रूप में प्रकट होंगे। कहा जाता है कि अजमालजी उसी दिन द्वारकाधीश के विमान में बैठ कर पौ फटने से पूर्व ही सीधे अपने गांव पहुंच गये।

मड़दंग ताळ पखावज बाजै,
खेलै गोपी नै श्याम हंसे।

रंग महल में रास रचियौ है,
समन्द रै मन ख्याल बसे।।। 

‘बैस विमाण घरां ने परूठां,
साचे सायब सू सीख करें।

पौ ऊगै रो भयौ परगळौ,
पिंडत पोकरण में पांव धरै।।’

प्रस्तुत शोध ग्रंथ, द्वितीय खंड परिशिष्ट भाग-क, बांणी सं. 33.

घर आकर अजमालजी ने अपनी रानी ‘मैणादे’ को प्रभु मिलन का शुभ सन्देश सुनाया। यथा समय उन्हें एक पुत्र प्राप्त हुआ, जिसका नाम उनहेांने भगवान् के आदेशानुसार ‘वीरमदेव’ रखा। इसी के कुछ मास पश्चात् चैत्र मास की शुक्ल पक्षीय पंचमी, वि.सं. 1409 में बाबा रामदेवजी अवतरित हुए।

बाबा रामदेवजी की जन्म तिथि:

कुछ गायक तथा कथावाचकों द्वारा रामदेवजी के विषय में लिखी गई छोटीमोटी पुस्तकों में रामदेवजी का आविर्भाव वि. सं. 1461, 1462, 1464 तथा 1465 आदि माना गया है, जो कि निश्चित रूप से भ्रामक एवं निराधार है। इन लोगों ने रामदेवजी के पितामह रिणसी को अनंगपाल का भाई मानकर उनकी दूसरी पीढ़ी में रामदेवजी का जन्म मान लिया है, यह तर्क-संगत नहीं है और न ही ऐतिहासिक दृष्टि से सही है क्योंकि इतिहासकारों ने पृथ्वीराज चौहान का जन्मकाल सं. 1220 के लगभग तथा मृत्युकाल 1246 निश्चित किया है। पृथ्वीराज चौहान को दिल्ली का राज्य अपने नाना अनंगपाल से मिला था।

तंवर वंश के इतिहास के अनुसार सम्वत 1131 वि. में दिल्ली का राज्य अपने दौहित्र पृथ्वीराज चौहान को देकर अनंगपाल तीर्थ यात्रा को गये।’ इस आधार पर अनंगपाल का समय विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में बारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध (स. 1061-1165 के मध्य) तक अनुमानित होता है। यदि रिणसी को इनका भाई मान कर उसकी दूसरी पीढ़ी में रामदेवजी का जन्म वि.सं. 1461-1465 मानें तो अनंगपाल से रामदेवजी तक 296-300 वर्ष की अवधि होती है। इतनी लम्बी अवधि में केवल दो ही पीढ़ियों का होना सही नहीं माना जा सकता।

इस स्थिति में दो सम्भावनाएं हो सकती है, एक तो यह कि अनंगपाल एवं रामदेवजी के मध्य दो नहीं अपितु अधिक पीढ़ियां हुई है और यदि यह सम्भावना सही नहीं प्रतीत होती हो तो दूसरी सम्भावना यह रहती है कि रामदेवजी का जन्म सं. 1461-1465 से बहुत पूर्व हुआ है। तुंवरों के भाटों की बही में दी गई तिथि से इस समस्या का समाधान सहज ही हो जाता है तथा ये दोनों सम्भावनाएं भी समन्वित रूप से सत्य में परिणित हो जाती है, जिसके अनुसार रामदेवजी का जन्म अनंगपाल तोमर की 8वीं पीढ़ी में वि. सं. 1409 की चैत्र शुक्ला पंचमी को हुआ। |

श्री लक्ष्मीदत्त जी बारहठ ने रामदेवजी की जन्म तिथि सं. 1462 की भादवा सदी दूज (शनिवार) बताई है। किन्तु उपर्युक्त तथ्यों से यह भ्रामक सिद्ध हो जाती है। (संदर्भ सूची-6)

एक प्राचीन हस्तलिखित छंद से यह सिद्ध होता है कि रामदेवजी का जन्म चैत्र शुक्ला पंचमी (सोमवार) को हुआ था –

तिथ पंचम सुध मुहरत ते दिन सोम वनातसरतली।
खट रित सिरोमण रित महासुभ, फूल अनेक वसंतफली।

स्वयं रामदेवजी के एक पद में भी इसी तिथि का स्पष्ट उल्लेख हुआ है।

समत चतुरदस साल नवमें श्री मुख आप जगायो।
भणै रामदेव चेत सुद पांचे अजमल घर में आयो।

रामदेवजी के चित्रों में भी जन्म संवत प्रायः 1462 या 1465 लिखा मिलता है और समाधि वि.सं. 1515 चित्रकारों के आधार पर किसी प्रकार की ऐतिहासिक शोध सामग्री नहीं होकर कथावाचकों की पुस्तकें और लोक भजन आदि है जो प्रामाणिक नहीं है।

बाबे री बीज :

भादवा के शुक्ल पक्ष की द्वितीया ‘बाबे री बीज (दूज)’ के नाम से पुकारी जाती है और यही तिथि रामदेवजी के अवतार की तिथि के रूप में लोक प्रचलित है। इस लोक मान्यता व लोक प्रचार के कारण रामदेवजी के कथावाचक और गायक लोग रहे हैं। ऐतिहासिक और प्रामाणिक तथ्यों का प्रचार लोक जीवन में बहुत कम होता है क्योंकि तर्क और प्रमाण ‘लोक मानस’ के तत्त्व नहीं है। लोक मानस ‘प्रीलोजीकल होता है, उसका आधार तर्क नहीं अपितु विश्वास होता है। लोक गीत एवम् लोक कथाएं ही लोक जीवन में किसी भी बात के प्रचार का सशक्त साधन हैं और लोक गायक इसके लोकप्रिय माध्यम हैं। इसी माध्यम से रामदेवजी की अवतरण तिथि के रूप में भादवा के शुक्ल पक्ष की द्वितीया ‘बाबे री बीज’ के रूप में लोक मानस में प्रतिष्ठित है।

बाबा रामदेवजी के विविध रूप :

रामदेवजी को द्वारकाधीश कृष्ण का अवतार, लोक देवता एवं पीर तीनों ही रूपों में पूजा जाता है। उनके सम्बन्ध में इन धारणाओं के आधार पर ज्ञात करते हुए यह बताना युक्ति संगत रहेगा कि जन मानस में रामदेवजी का क्या रूप है।(संदर्भ सूची-7).

(क) द्वारकाधीश श्री कृष्ण के अवतार रामदेवजी :

बाबा रामदेवजी के सम्बन्ध में अवतार की धारणा ही प्रबल रूप से प्रचलित है। पहिले जो उल्लेख किया गया है उसके अनुसार यह स्पष्ट हो जाता है कि द्वारकाधीश श्रीकृष्ण ने अपने भक्त अजमाल जी को यह वचन दिया था कि वे उनके पुत्र-रूप में अवतरित होंगे।

अवतारवाद की पुष्टि के लिए यह भी कहा जाता है कि रामदेवजी ने अपनी माता की कोख से जन्म नहीं लिया था, अपितु वे पालने में ही प्रकट हुए थे।’ कहा जाता है कि बालक ‘विरमदेव’ को पालने में सुलाकर उनकी माता ‘मैणादे’ अपने गृह-कार्य में व्यस्त थी, उसी समय एक दासी ने जाकर पालना संभाला तो उसे पालने में सोये हुए दो बालक दिखलाई पड़े। उसने अनुमान लगाया कि संभवत: भैरव राक्षस के भय से त्रस्त कोई स्त्री अपने बच्चे को सुरक्षित रखने हेतु यहां सुलाकर चली गई है। दासी ने जाकर ‘सुगना’3 से कहा कि वह आकर इन दोनों में से वीरमदेव को पहिचानें –

‘दासी आय सुगणा ने बुलावे,
बिरम कुंवर ओलखाणौ आई।

सुगना घबड़ा गई और वह ‘मैणादे को बुला लाई। ‘मैणादे’ इन दोनों बालकों को एक साथ पालने में देखकर भयभीत हो गई और उसने सुगना के द्वारा अजमालजी को बुलवाया। (संदर्भ सूची-8)

बाई जाय बापजी ने दाखै,
घर अचरज बणियौ आण।

कळासरूपी दोये खेले पालणे,
मानवगत है कोई देव देवाण।

अजमालजी अन्दर आए और उन्होंने भगवान् के द्वारा द्वारकापुरी में दिए गए वरदान का स्मरण किया और भगवान् द्वारा बतलाए गए लक्षणों को पहचाना, तथा राणी को बताया कि ये तो स्वयं भगवान् हैं। इन्होंने द्वारकापुरी में हमें वचन दिया था कि वे हमारे घर में अवतार लेंगे।

द्वारकापुरी में कवल किया,
दे बाचा बूहा परियाण।।

आज म्हारे देव भला ही घर आया,
भळहळ ऊगो पिछम में भाण।

अवतार का कारण – भैरव राक्षस-वध

लोक-कथाओं एवं लोक गीतों में यह जनश्रुति अति प्रसिद्ध है कि ‘पोकरण’ नगर के निकट ही भैरव नामक एक राक्षस रहता था, जिसने आस-पास के समस्त गांव उजाड़ दिये थे। इसी राक्षस के वध के लिए भगवान् श्रीकृष्ण ने रामदेवजी का अवतार लिया।

यों भी गीता के अनुसार यह मान्यता है कि जब-जब पृथ्वी पर धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए और दुष्टों का संहार करने के लिए भगवान् युग-युग में प्रकट होते हैं।(संदर्भ सूची-9)

जिस प्रकार कृष्ण ने अपने बाल्यकाल में अनेक राक्षसों का वध किया था, कहा जाता है कि उसी प्रकार रामदेवजी ने भी भैरव राक्षस का वध अपने बाल्यकाल में ही किया था।’

इस प्रसंग को लेकर एक रोचक कथा प्रचलित है कि रामदेवजी अपनी बाल्यावस्था में अपने साथियों के साथ गेंद खेल रहे थे जिसमें उन्होंने यह शर्त रखी थी कि जिसकी लकड़ी से गेंद दूर चली जायेगी वही उसको खोज कर वापिस लायेगा। खेल-खेल में रामदेवजी के हाथों से गेंद बहुत दूर जंगल में चली गई, जिसे खोजते हुए रामदेवजी अपने ‘लीले’ घोड़े पर सवार होकर बीहड़ जंगलों में चले गए। सूर्यास्त के समय वे ऋषि बालीनाथ के आश्रम में पहुंचे, जहां उन्होंने रात्रि-विश्राम करने का निश्चय किया। बालीनाथ ने बालक रामदेव को देखकर कहा कि यहां पर भैरव राक्षस आया करता है जिसने इस समस्त क्षेत्र को उजाड़ दिया। यह केवल मुझे ही नहीं मारता, किन्तु मेरे अतिरिक्त किसी भी मानव को जीवित नहीं छोड़ता है। सूर्यास्त हो जाने के बाद बालीनाथ रामदेव को वहां जाने की अनुमति भी नहीं दे पा रहे थे। बालक रामदेव के कान्तियुक्त मुख-मण्डल से प्रभावित होकर उन्होंने उनका परिचय पूछा। तब रामदेवजी ने अपने वंश और जाति का परिचय देते हुए स्वयं को बालीनाथ का शिष्य बतलाया।
(संदर्भ सूची-10)

बालीनाथ रामदेवजी के मुंह से गुरु-पद पर अपना नाम सुनकर चकित हुए और उन्होंने पूछा कि मैंने तुम्हें कब शिष्य बनाया था? मेधावी बालक रामदेव ने कहा कि मेरे यहां आने पर जब आपने मेरे सिर पर अपना हाथ रखा था, उसी क्षण से मैंने आपको अपना गुरु निश्चित कर लिया है।

वह वार्तालाप चल ही रहा था कि भैरव राक्षस आ गया। उसकी आहट सुन कर बालीनाथ ने रामदेवजी को सावधान किया और उनको एक गुदड़ी के नीचे छिपा दिया भैरव राक्षस बालीनाथ के मना करने पर भी मानव सुगन्धि के वशीभूत हो कर उनके आश्रम में घुस गया और चारों तरफ खोजने के पश्चात् जब वह निराश होकर लौट ही रहा था, तब रामदेवजी ने सोते हुए ही अपनी गुदड़ी को हिलाया। भैरव राक्षस उन्हें देखते ही उन पर झपटा और उनकी गुदड़ी को खींचने लगा। रामदेवजी की लीला से वह गुदड़ी जब ‘द्रोपदी का चीर’ बन गई, तब भैरव राक्षस घबरा कर वहां से भाग गया। रामदेवजी उस समय उठे। बालीनाथ ने उन्हें देखा कि अब वे बालक नहीं है, अपितु एक युवक बन गये हैं।

कहा जाता है कि रामदेवजी की इस लीला को देकर ऋषि बालीनाथ पहचान गये कि ये सचमुच कृष्णावतार रामदेव हैं। स्वयं भगवान् को अपने शिष्य रूप में पाकर वे बहुत प्रसन्न हुए। फिर यह भी कहा जाता है कि रामदेवजी ने बालीनाथ के आदेश से अपने घोड़े पर सवार होकर उस भागते हुए राक्षस का पीछा किया था। और उसको एक पहाड़ी पर पकड़ लिया। भैरव राक्षस ने गिड़गिड़ा कर उनसे क्षमा-याचना की और कहा कि आप मुझे जीवित छोड़ दें, मैं जहां कहीं भी आपका नाम सुनूंगा और आपके प्रियजनों को देखूगा, उस स्थान को तुरन्त छोड़ दूंगा। | इस बात पर कहा जाता है कि रामदेवजी ने भैरव राक्षस को अपने भाले पर चढ़ा (संदर्भ सूची-11) कर चारों ओर घुमाते हुए पुछा कि बताओ, तुम्हें मेरे प्रियजन कहां नहीं दिखलाई पड़ते राक्षस ने कहा कि आपके प्रियजन सर्वत्र हैं, कोई भी स्थान उनसे शुन्य नहीं है। इसके बाद रामदेवजी ने भैरव राक्षस को नीचे पटक कर अपने भाले से ही उसका वध कर दिया। वैसे यह जनश्रुति अधिक मान्य है कि रामदेवजी ने उसे मारा नहीं था, वरन् जीवित ही किसी गड्ढे या गुफा में डालकर द्वार बन्द करने हेतु उस पर शिला रख दी थी।’

पोकरण, रामदेवरा, पीलवा, ठाढ़ीया एवं गिलाकोयर ग्राम के कुछ वृद्धजनों से यह भी सुनने में आया कि रामदेवजी के प्रादुर्भाव से पूर्व जैसलमेर जिले में साथलमर नामक एक बहुत बड़ी नगरी थी, जिसमें भैरूमल नामक एक करोड़पति सेठ रहता था। उसकी धन-सम्पत्ति डाकुओं द्वारा लूट ली गई थी, जिसके फलस्वरूप वह पागल और क्रूर हो गया था और आगे चलकर भैरव दैत्य के नाम से कुख्यात हुआ जिसने सुनहरी नगरी ‘साथलमेर’ का उजाड़ दिया था। रामदेवजी ने इसी भैरव राक्षस को मार कर उजड़े हुए ‘साथलमेर के समीप एक ‘ढाणी’ को पोकरण के नाम से बसाया और फिर वे अपने पिता अजमाल और अपनी माता मैणादे को भी वहीं (पोकरण) ले आए। | इस लोक-कथा की सत्यता में कोई ठोस प्रमाण नहीं है। इतिहास की दृष्टि से भी यह लोक-कथा असत्य सिद्ध होती है, क्योंकि राव जोधा की मृत्यु होने पर वि.सं. 1545 (ई.सं. 1489) में सातल उनका उत्तराधिकारी हुआ। सिंहासनारूढ़ होने के कुछ दिनों बाद ही पोकरण से दो कोस दूरी पर उसने एक गढ़ का निर्माण कराया और अपने नाम पर उसका नाम सातलमेर रखा।

इससे स्पष्ट होता है कि सातलमेर नामक कोई नगर ‘पोकरण’ से पूर्व विद्यमान नहीं था, और यह कोई नगर नहीं अपितु एक गढ़ था जो कि राव जोधा के पुत्र सातल द्वारा सं. 1545 में बनवाया गया, जबकि रामदेवजी ने इसके 103 वर्ष पूर्व ही जीवित समाधि ले ली थी।

रामदेवजी द्वारा ‘पोकरण’ की स्थापना किया जाना भी ऐतिहासिक दृष्टि से सही नहीं है। मारवाड़ के इतिहास के अनुसार – ‘राव सूजा राव जोधा के पुत्र थे। राव सूजा का जन्म वि. सं. 1496 की भादो वदी 8 (ई. सन् 1496 की 2 अगस्त) को हुआ था। सातल (सूजा के बड़े भाई) की मृत्यु के बाद वह जोधपुर की गद्दी पर बैठे।… (संदर्भ सूची-12)राव सूजा का अधिकार जोधपुर, फलौदी, पोकरण, सोजत और जैतारन के परगनों पर रहा था। वि.सं. 1572 की कार्तिक वदी 9 को 76 वर्ष की अवस्था में सुजा का स्वर्गवास हो गया।

वि.सं. 1555 में जब बाड़मेर के राठौड़ो की सहायता से पोकरना राठौड़ ने नरा को मार डाला तब राव सूजा ने चढ़ाई कर बाड़मेर, कोटड़ा आदि को लूट लिया।…हम्मीर के वंशज पोकरण के शासक होने के कारण पोकरना राठौड़ कहलाए।

उपर्युक्त दोनों ऐतिहासिक उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि पोकरण प्राचीन और ऐतिहासिक नगर रहा है। अत: रामदेवजी द्वारा उसकी स्थापना नहीं मानी जा सकती क्योंकि रामदेवजी का जन्म वि. सं. 1409 में हुआ। और यदि यह मान भी लिया जाय कि उन्होंने अपने बाल्यकाल में ही भैरव राक्षस को मारने के पश्चात् वहां पर ‘पोकरण’ नगर की स्थापना की हो, जैसे कि प्रस्तुत लोक-कथा कहती है, तो इसे ज्यादा से ज्यादा 15-20 वर्ष लगे होंगे और यह सम्भव नहीं कि 15-20 वर्ष की थोड़ी से अवधि में नया नगर इतनी प्रसिद्धि प्राप्त कर ले।।

इन समस्त ऐतिहासिक तथ्यों के अतिरिक्त रामदेवजी सम्बन्धी अन्य लोक-कथायें में भी इसका समर्थन नहीं करती हैं कि पोकरण की स्थापना रामदेवजी ने की थी। पूर्व में जिन लोक-कथाओं का उल्लेख हो चुका है और उनके अनुसार भी रामदेवजी के पिता अजमाल एवं उनके पितामह रिणसी तोमर के समय में भी ‘पोकरण’ विद्यमान था।

अत: यहीं कहा जा सकता है कि रामदेवजी ने ‘पोकरण’ नगर की स्थापना नहीं की। अपितु इस लोक साहित्य के आधार पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि रामदेवजी ने अवतार लेकर किसी राक्षस को मारने के पश्चात् किसी नगर को बसाया था। निष्कर्षत: यही बात सत्य प्रतीत होती है कि पोकरण एक प्राचीन नगर है। (संदर्भ सूची-13)जिसे भैरव राक्षस ने उजाड़ दिया था। रामदेवजी ने अपनी बाल्यावस्था में भैरव को वहां से खदेड़ कर उजड़े हुए नगर पोकरण को पुनः बसाया। राजस्थानी के सुप्रसिद्ध लेखक और इतिहासकार मुहता नैणसी के ग्रंथ ‘मारवाड़ रा परगनां री विगत’ से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है।’

अवतारवाद की सिद्धि के लिए यहां रामदेवजी के कुछ ही अलौकिक कार्यों का उल्लेख किया है। इनको सविस्तार अन्यत्र लिया जायेगा।

अनेक भक्त कवियों ने रामदेवजी को अवतार स्वीकार किया। उनकी मुख्य उक्तियां इस प्रकार उहृत की जा सकती हैं –

(क) सोवनी द्वारिका सू आयो गिरधारी।
तुंवरां रो बिड़द बधायो हद भारी।।

हर सरणे भाटी हरजी बोले।
धोली धजा रो धणी है गिरधारी।।

(ख) पीर अवतार लियो पिछम में,
पोकरण में आये डेरा किया।

हरजी भाटी के अनुसार हिरणाकुस को मारने वाले ये ही थे तथा कौरवों को मारकर पाण्डवों के साथ प्रीत का निर्वाह करने वाले कृष्ण ही रामदेव के रूप में अवतरित हुए हैं –

(ग) हिरणाकुस ने मार हटायो,
प्रीत प्रहलादे री पाळी।

श्री निकलंक अवतारी,
जहाज बोयते री तारी।
(संदर्भ सूची-14)

घर अजमल अवतारी,
जहाज बांणीये री तारी।।

केरूवां ने हर मार हटाया,
अर प्रीत पांडुवां री पाळी।
घर अजमलजी अवतारी। अनन ।2

(2) विजोजी सांणी भी इन्हें कृष्णावतार मानते हुए कहते हैं –

द्वारका से आय ने देवरो थरपियो,
काहन अवतार अटै राम कहिजै।

बृजलाल री बंशी रावळी,
गिरधारी री साळ कहिजे।।

(3) पंडित देवाजी की धारणा है कि गोपियों के साथ खेलने वाले एवं बन्शीवादन करने वाले कृष्ण ही रामदेव हैं और रावण को मारने वाले राम ही रामदेव के रूप में प्रकट हुए हैं –

”गिरधर गोपियां रे संग रमै,
मिल कर खेले दाव।

दाणू रे कारण आप देवता,
आप ही निकलंक राव।

भुज रावण रा भांगिया,
मारियो लंका रो राव।”

(4) धेनदास जी अपनी सम्मति देते हुए कहते है कि रामदेवजी परमेश्वर का ही अवतार हैं –

”रमता राम रूणीचे आया, परचे रे कारण पीर कैवाया।
बापजी पीर केवू पण हो परमेसर, जती सती जूना जोगीसर।।”

(संदर्भ सूची-15)

(5) हीरानंद भी इन्हें अवतार मानते हैं –

सोवणी द्वारका सू अलख पधारिया,
घर अजमल अवतार लियो।।

(6) लिखमोजी माळी रामदेवजी को विष्णु का अवतार मानते हुए कहते हैं कि रावण को मारने वाले राम ही अब भैरव राक्षस को मारने हेतु रामदेव बन कर आये हैं –

“तू ही राम तू ही रावण रिप, पाणी पर पत्थर तिराई।
डूबती नाव बोयते री तारी,राकस कियो वंश भारी।। 

(7) देवसी माळी भी रामदेवजी को कृष्णावतार मानते हुए कहते हैं

हिरणाकुस मारण वालो वो ही,
पहलाद उबारण वाळो वो ही।।”

(8) महाराजा मानसिंह ने रामदेवजी को विष्णु अवतार माना है –

धर अवतार जुग जीतियो,
रावण मारीयो बंको।

सीया रे कारण लंका जळाई,
हडूमान दियो डंको।

लीले चढ़ने दरसण दीजो,
हेलो सुणजो रामदेवजी म्हारौ।

क्रमश पोस्ट….

संदर्भः बाबा रामदेवः इतीहास एवं साहित्य
लेखकः प्रो.(डॉ.) सोनाराम बीसनोई
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(संदर्भ सूची-1)
1. ‘मारवाड़ का इतिहास’ – पं. विश्वेश्वनाथ रेउ, प्रथम भाग पृ. 107 2. मुहता नैणसी कृत ‘मारवाड़ रा परगनां री विगत – भाग – 2, पृ. 291.

(संदर्भ सूची-2)

1. ‘तद रणसी गाडा जोड़ाय नै हालिया तद रणसी आपरी वसी, बहू, बेटो तो पोकरण मैल्हिया अर आप कासी गयो।” वात रणसी तुंवर री- अनूप संस्कृत पुस्तकालय (राजस्थानी) इतिहास (वार्ता) नं. 213/9 पृ. 202, प्रस्तुत ग्रंथ का खण्ड द्वितीय, परिशिष्ट भाग (ग) सं. २

2. वही- ।

3. बैस विमाण घरां नै परूठा, साचे सायब सू सीख करै।। पौ ऊगै रो भयो परगळौ, पिंडत पोकरण में पांव धरै।।। – प्रस्तुत शोध ग्रंथ, द्वितीय खंड, परिशिष्ट भाग-क, बांणी सं. 33.

(संदर्भ सूची-3)

1. ‘वात रामदवे तंवर री’ – डॉ. मनोहर शर्मा, शोध पत्रिका, वर्ष 28, अंक – 3-4, पृ. 51 (हस्तलिखित मूल प्रति अनूप संस्कृत पुस्तकालय बीकानेर में सुरक्षित है। ) देखिये प्रस्तुत ग्रंथ का खण्ड व द्वितीय परिशिष्ट भाग (ग) सं. 4.

2. ‘वात तुंवरां री’ – अनूप संस्कृत ग्रंथालय इतिहास (वातां) ग्रंथांक- 206/2, पृ. 10-12 देखिये प्रस्तुत ग्रंथ का खण्ड द्वितीय, परिशिष्ट भाग (ग) सं. 2..

(संदर्भ सूची-4)

1. प्रस्तुत शोध ग्रंथ, खण्ड द्वितीय, परिशिष्ट भाग-क, बांणी सं. 83.

2. – प्रस्तुत शोग ग्रंथ, खण्ड द्वितीय, परिशिषट भाग-क, बाणी सं. 83. 3. ‘रामदेवजी रो सिलोको – अनूप संस्कृत पुस्तकालय, बीकानेर, पुस्तक सं. 277 (ख) पृ. सं. 133, प्रस्तुत शोध ग्रंथ, खण्ड द्वितीय,परिशिष्ट भाग (ख) सं. 1. 4. आरकाईज, बीकानेर ब. 75, पृ. 3, पृ. 58, प्रस्तुत ग्रंथ, द्वितीय खण्ड परिशिष्ट भाग (ख) सं. 5.

(संदर्भ सूची-5)

1. प्रस्तुत ग्रंथ, खण्ड द्वितीय, परिशिष्ट भाग (क) सं. 53.

2. ‘संगवी आय सहर में बसिया, सपने में रिणछोड़ कहे। पिंडत अजेसिंह द्वारका पधारो, बिन लिखिया बाबो पुतर देवे।।2।। – परिशिष्ट भाग-क, बांणी सं. 33.

(संदर्भ सूची-6)

1. तंवर वंश का संक्षिप्त इतिहास – जोगीदान बारैठ (कविया) पृ. 16.
2. तुंवरों के भाटों की बही, उपलब्ध तुंवरों के भाट, ग्राम आसलपुर, जिला जयपुर (राजस्थान) 3. ‘रामदेव लीलामृत’ (खमा खमा) – लक्ष्मीदत्त बारहठ, पृ. 17.

(संदर्भ सूची-7)

1. ‘श्री रामदेवजी रो छंद – कवि जालू रो कहियो’ आरकाईज बीकानेर, वं. 75, पु. 3, पृ. 58 प्रति-प्रस्तुत शोध ग्रंथ के परिशिष्ट भाग – ख, सं. 5.
2. –प्रस्तुत शोध ग्रंथ, द्वितीय खण्ड, परिशिष्ट भाग-क, पद सं. 18.

(संदर्भ सूची-8)

1. (क) द्वारका रा देव आया अजमल घर,
देह धारी पींगे परियाण।

दिन रा दीपक हर संजोया, ।
हद खुलगी हीरां री खाण।। 

प्रस्तुत शोध ग्रंथ का परिशिष्ट, भाग-क, बांणी सं. 34.

(ख) पींगे आये परम गुरु पोढ्या,
हालरिये हुलराया।’ ।

प्रस्तुत शोध ग्रंथ, परिशिष्ट भाग क, बांणी सं. 36.

2. ‘दासी जाय संभाळियो पींगो,
सन्मुख सूता खूटी ताण।

भैरू दैत रो भव है घणौ,
कोई क बाळके सोवांणगी आण।।’ –

प्रस्तुत शोध ग्रंथ, परिशिष्ट, भाग-क, बांणी सं. 34. 3. अजमालजी के भाई धनरूपजी की पुत्री। 4. प्रस्तुत शोध ग्रंथ, परिशिष्ट, भाग-क बांणी सं. 34.

(संदर्भ सूची-9)

1. प्रस्तुत शोध ग्रंथ, परिशिष्ट, भाग-क बांणी सं. 34.

2. (क) किंकु पंगला री करै परीक्षा बाळक नै औळखाइजे। परिशिष्ट, भाग-क, बांणी सं. 87.

(ख) कुंकू रा कदम मंडिया घर आंगण,
आ घर आयां री ओळखाई।।

परिशिष्ट, भाग-क, बांणी सं. 87.

3. परिशिष्ट, भाग-क. बांणी सं. 34.

4. (क) यदा यदा हि धर्मस्य गलानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमघर्मस्ये तदात्मानं सृजाम्हम्।।7।।

(ख) परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे।।8।।। –
श्रीमदभगवदगीता, चतर्थ अध्याय।

(संदर्भ सूची-10)

1. (क) रमता राम नाथ रे द्वारे, आलम इग्या ले वांरी।।
दड़ी रमतां दैत मारियो, पकड़ पछाड़ियो पल मांही।

-प्रस्तुत शोध ग्रंथ, परिशिष्ट, भाग-क, लिखिमोजी माळी, बांणी सं. 87.

(ख) घर अज़मालजी रे बिड़द बधारियो, दैत मारीयो बंको।
– वही – महाराजा मानसिंह, बांणी सं. 95.

(ग) बाळनाथाजी रा दस्तक भारी रे।।
मारीयो राकस जय-जय कारी रे।। –
वही – हरजी भाटी, बांणी सं. 38.

(घ) राकस मार राम घर आया, मोतियां देव बंधाया।।।
– वही – हरजी भाटी, बांणी सं. 37.

2. दोटो दियो राजा रामदे, दड़िया बन खण्ड सारी जै।
– वही – हरजी भाटी, बाणी सं. 35.

3. जैसलमेर जिले में पोकरण तहसील में पोकरण नगर से अनुमानतः 5-6 मील दूर रामदेवरा व पोकरण के बीच बालीनाथ ऋषि का मन्दिर वर्तमान में स्थित है। कहा जाता है कि यहीं पर उनका आश्रम था।

4. किण रो पूत कठे सु आयो।
| काई केय बतळाइजै।।
– प्रस्तुत शोध ग्रंथ, परिशिष्ट, भाग-क, हरजी भाटी बांणी सं. 35. 5. दादो रिणसी, पिता अजमलजी,

करणी रो तंवर केहवाइजै।
बाळनाथ स्वामी रो चेलो,
रामदेव केय बतळाइजै ।।

– वही, हरजो भाटी, बांणी सं. 35.

(संदर्भ सूची-11)

1. ‘काकर उड़े खै खळूकै,
खळहळ नळी खटूकीजै।।

चुपकर बाळा छानौ रहिये,
आयो दैत सारीजै ।।
– वही, हरजी, भााटी, बांणी सं. 35.

2. झर-झर कंथा ओढ़ाइजे।।
– प्रस्तुत शोध ग्रंथ, परिशिष्ट भाग-क, हरजी भाटी, बांणी सं. 35. . 3. उठियो कंवर कंथा कर लीजै।

मुख पर मूंछ सवारीजै ।।
– वही, हरजी भाटी, बांणी सं. 35.

4. भाग्यौ दैत भांय दे आड़ी,
हुकम हुवै तो गुरु औ दैत मारीजै ।।
– वही, हरजी भाटी, बांणी सं. 35.

(संदर्भ सूची-12)

1. काढ़ कुंडीयो दैत गाड़ियो, ।।
पग सू सिला सरकाई।।
– प्रस्तुत शोध ग्रन्थ, परिशिष्ट, भाग-क, हरजी भाटी, बांणी सं. 36.

2. पोकरण से अनुमानतः 8-9 मील दूर किसी उजड़े हुए नगर के खण्डहर वर्तमान में भी स्थित हैं। इन्हें ‘साथलमेर नगरी के खण्डहर माना जाता है।

3. (क) जोधपुर राज्य की ख्यात, जि. 1, पृ. 47, नैणसी मूणोत।
(ख) वीर विनोद, भाग-2, पृ. 806.

(संदर्भ सूची-13)

1. मारवाड़ का इतिहास, पृ. 107-108, पं. विश्वेश्वर नाथ रेउ।

2. मारवाड़ का इतिहास, पृ. 109, पं. विश्वेश्वरनाथ रेउ।।

3. (क) बारे बारे कासरी में राज दैत रो,
सांस लियां माणस भख जाय।।

नीर नहीं लाधे वा नदी खाबड़े,
हिलियो दैत बावड़ी जाय।

राकस मार कंवर भोम बसाई। पल पल किया अजमल रे वास।। – प्रस्तुत शोध ग्रंथ, परिशिष्ट, भाग-क, देवसी माळी, बांणी सं. 86. (क) राकस मार धणी भोम बसाई फिर रही आण दवाई।। – वहीं, हरजी भाटी, बांणी सं. 36.

(ख) राकस राम सिंघारसी, बाळक भोळ बहे।
भोम बसावे पिछम रो, दळसी दैत दही।। – वही, बांणी सं. 32

(संदर्भ सूची-14)

1. ”पोकरण राकस सूनी की। तठा पछै केई दिन सूनी रही। तठा पछै कितरेक दिन रावळ मालौ महेवे धणी हुवो। तिण समै तुंवर अजैसी रामदे पीर रौ बाप नै रामदे माला कनै महेवे आया। सु आ ठौड़ रामदे पीर दीठी तरै रामदे रावळ माला ने कह्यो आ पोकरण नांनग छाबड़ा वाळी सूनी नगरी पड़ी छै,थे कहौ तौ म्हे वासां। तरै मालै कह्यौ उठे तो राक्षस भैरवो रहे छै। तरै रामदे कह्यौ म्है उण यूं समझ . लेसां, थे दुवौ देवौ। तरै मालदे दुवौ दीयौ। रामदे पोकरण वासी। राकस भैरवो हाथ जोड़ आगे भौ रह्यौ। कह्यौ – मोनु हुकम करो तलै जाऊं । तरै कह्यौ – सिंध नु जाव। पछै पोकरण रामदे वासी।” – मारवाड़ री परगना री विगत, भाग-2, पृ. 291.

2. प्रस्तुत शोध ग्रंथ, परिशिष्ट, भाग-क, बांणी सं. 38.
3. – वही – बांणी सं.. 35.

(संदर्भ सूची-15)
1. – वही – बांणी सं. 45. 2. – वही – 3. प्रस्तुत शोध ग्रंथ, परिशिष्ट, भाग-क, बांणी सं. 75. 4. – वही – बांणी सं. 84. 5. – वही – बांणी सं. 91.
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संदर्भः बाबा रामदेवः इतीहास एवं साहित्य
लेखकः प्रो.(डॉ.) सोनाराम बीसनोई

पूर्व अद्य्यक्ष राजस्थानी विभाग
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पूर्व अद्य्यक्ष राजस्थानी भाषा
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