रावल मल्लीनाथजी का जीवनवृत।

बाबा रामदेवः इतीहास एवं साहित्य

जोधपुर राज्य की ख्यात में लिखा है – “वह बड़ा प्रतापी था, उसने बहुत सी भूमि अपने अधिकार में की, अनेको ग्रासियों को मारा और बहुतेरों को अपनी चाकरी में रखा। घड़सी क साथ जगमाल को भेज उसने उसका गया हुआ जैसलमेर का राज्य मुसलमानों से वापिस उसे दिला दिया। माला अवतारी व्यक्ति था। 1431 में वह महवे और खेड़ का स्वामी हुआ।

रामदेवजी से सम्बन्धित साहित्य के सूक्ष्म निरीक्षण से महवे और खेड़ पर मल्लीनाथ जी का स्वामित्व इस तिथि से पूर्व होना स्पष्ट होता है। क्योंकि रामदेवजी ने बाल्यकाल में भैरव राक्षस को खदेड़ करके पोकरण नगर पुनः बसाया था, जो पहले मल्लिनाथ के अधीन था और भैरव राक्षस ने उसे उजाड़ दिया था। मुहता नैणसी कृत मारवाड़ रा परगना रा विगत, भाग-2, पृ. 291 से यह स्पष्ट होता है कि रामदेवजी व उनके पिता अजमालजी रावळ मालजी के पास महवे आये थे और उनकी आज्ञा प्राप्त करके ही पोकरण बसाया था। यह वृतान्त पूर्व लेख में सविस्तार आ चुका है। यदि 8-10 वर्ष की अवस्था में रामदेवजी ने पोकरण बसाया हो जैसा कि उनसे सम्बन्धित साहित्य से स्पष्ट होता है तो वि.सं. 1417-19 तक महवे पर रावळ मालजी का शासन हो जाना चाहिए।

पं. विश्वेशवर नाथ रेउ कृत मारवाड़ के इतिहास से इस बात की पुष्टि भी हो जाती है, जिसके अनुसार ‘रावळ मल्लीनाथ’ जी सलखाजी के ज्येष्ठ पुत्र थे और पिता की मृत्यु के बाद अपने तीनों छोटे भाइयों को साथ लेकर अपने चाचा राव ‘कान्हड़देवजी’ के पास जा रहे। थोड़े ही दिनों में इनकी कार्यकुशलता से प्रसन्न होकर उन्होंने राज्य का सारा प्रबन्ध इन्हें सौंप दिया।

इन पंक्तियों के अनुसार सलखाजी की मृत्यु के बाद राज्य का प्रबन्ध रावळ मल्लीनाथ जी को मिल गया था। सलखाजी की मृत्यु वि.सं. 1414 श्रावण बदी 3 को हुई। अधिकाधिक यदि मृत्यु के 3-4 वर्ष बाद भी माने तो वि.सं. 1417-18 के आसपास रावळ मल्लीनाथ जी महवे के स्वामी हो गये थे। तब बाल्यवस्था में रामदवेजी का उनसे मिलना और उनकी आज्ञा लेकर पोकरण पुनः आबाद करना बिल्कुल सही लगता है।

महवे के कुछ भाग पर तो मल्लीनाथ जी के पिता सलखाजी का अधिकार पहले से ही था क्यों कि कान्हड़दे क समय महवे पर मुसलमानों का अधिकार हो गया, तब मौका पाकर इन्होंने (सलखाजी ने) महवे का कुछ भाग उन (मुसलमानों) से छीन लिया।”। इस स्थित में तो अपने पिता की मृत्यु के तुरन्त पश्चात् वि.सं. 1414 में ही महवे के कुछ भाग पर शासक रावळ मल्लीनाथ जी हो ही गये थे। थोड़े ही दिनों बाद सारा राज्य प्रबन्ध भी कान्हड़देवजी ने इन्हें सौंप दिया। ”परन्तु कुछ दिनों बाद इन्होंने महवे पर अधिकार कर लेने का विचार किया और इसके लिये मुसलमानों की सहायता प्राप्त करना आवश्यक समझा, यह उसकी तलाश में चल दिए। इसी समय इनके बड़े चचा कान्हड़देवजी का स्वर्गवास हो गया और छोटे चचा त्रिभुवनसीजी महवे की गद्दी पर बैठे। जेसे ही इस घटना की सूचना मल्लीनाथजी को मिली वैसे ही वह यवन सेना के साथ वहां आ पहुंचे और त्रिभुवनसीजी को युद्ध में आहत कर खेड़ के स्वामी बन बैठे।” युद्ध में घायल हो जाने से त्रिभुवनसीजी हार गए और कुछ ही दिन बाद उनकी मृत्यु हो गई।

“ख्यातों में लिखा है कि मल्लीनाथजी ने अपने बन्धु पद्मसी को आधे राज्य का प्रलोभन देकर उसके द्वारा त्रिभुवनसी के घावों में नीम के पत्तों के साथ विष का प्रयोग करवा दिया था। इससे शीघ्र ही उनकी मृत्यु हो गई। परन्तु कार्य हो जाने पर मल्लीनाथ ने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी और उसे केवल दो गांव देकर ही टाल दिया।” पं. विश्वेश्वर नाथ रेउ ने लिखा है कि “रावल मल्लीनाथ जी एक वीर पुरुष थे। इससे जब इन्होंने मण्डोर, मेवाड़ आबू, और सिंध के बीच लूट-मार कर मुसलमानों को तंग करना शुरू किया तब उनकी एक बड़ी सेना ने इन पर चढ़ाई की। उस सेना में तेरह दल थे, परन्तु मल्लीनाथ जी ने इस बहादुरी से उसका सामना किया कि यवन सेना को मैदान छोड़कर भाग जाना पड़ा।” इस प्रसंग का यह पद लोक प्रचलित हैं –

‘तेरह तुंगा भांगिया माले सलखाणी’

“ख्यातों के अनुसार यह घटना वि.सं. 1435 में हुई थी। इस पराजय का बदला लेने के लिये मालवे के सूबेदार ने स्वयं इन पर चढ़ाई की। परन्तु मल्लीनाथजी की वीरता और युद्ध कौशल के सामने यह भी कृतकार्य न हो सका।”

इस प्रकार के सुभट और महापराक्रमी रावळ मालजी (मल्लीनाथजी) भी अपने अधीनस्थ पोकरण जैसे ऐतिहासिक नगर को भैरव राक्षस से प्रलयंकारी उत्पात और विनाश से नहीं बचा सके। भैरव से भयभीत वहां की जनता भाग छूटी, और बहुत से लोग भैरव का भक्षण बने, पोकरण पूर्णतया उजड़ गया। बाबा रामदवेजी ने निश्चय ही अपने बात्यकाल में ही भैरव राक्षस का वध करके पोकरण पुन: बसाया, यह प्रसंग इसी अध्याय में पहले आ चुका है। रावळ मल्लीनाथ जी से आज्ञा लेकर रामदेवजी ने क्षत्रियोचित मर्यादा और राजनीतिक आदर्श की प्रेरणा दी है।

इन्हीं रावळ मालजी सलखावत की एक राणी रूपांदे उगमसी भाटी की शिष्या थी और रामदेवजी की अनन्य भक्त। उगमसी भाटी भी रामदेवजी के भक्त थे और स्वयं रामदेवजी शैवमत के अनुयायी बालीनाथ जी के शिष्य और शिव उपासक थे। रामदेवजी की अनन्य भक्त राणी रूपांदे की भक्ति भावना तथा रामदेवजी के चमत्कार से प्रभावित होकर रावळ मालजी स्वयं उगमसी भाटी के शिष्य बन गये तथा शैवमत की दीक्षा ली। उसी दिन से ये रावळ माल नाम बदल कर मल्लीनाथ कहलाये। वस्तुत: उस दिन तक ये मल्लीनाथ नहीं थे और उस दिन के बाद रावळ माल जी नहीं थे।

पं. विश्वेश्वर नाथ रेउ के अनुसार “मल्लीनाथ जी का स्वर्गवास वि.सं. 1456 (ई.सं. 1399) में हुआ। मारवाड़ के लोग इनको सिद्ध पुरुष मानते है। लूनी नदी के तट पर बसे तिलवाड़ा नामक गांव में इनका एक मन्दिर बना है और वहाँ पर चैत्रमास में एक मेला लगा करता है।”

वस्तुत: वह राणी रूपांदे और मल्लीनाथ जी का समाधि स्थान है। यहां पर उनकी स्मृति में पशु मेला लगता है। पशु मेले का कारण यही है कि सिद्ध (नाथ) हो जाने के बाद वे (मल्लीनाथजी) पशुओं का रोग-दोष निवारण करने लगे थे, और स्वयं चमत्कारिक हो गये। कहते हैं कि आज भी तिलवाड़ा में जहां यह मेला लगता है वहां पशुओं के लिए पानी की कोई समस्या नहीं रहती। जहां डेढ़ हाथ गड्ढा खोदों वहीं मीठा पानी निकल आता है किन्तु यह चमत्कार केवल मेले की अवधि में ही रहता है।

सिंध और मारवाड़ की सीमाएं मिली हुई होनेसे समय-समय पर मुसलमानों के अनेक आक्रमण यहां होते रहते थे। विक्रम की 8वीं शती से विदेशी आक्रमणों का दुर्भाग्यशाली सिलसिला शुरू हुआ था, जब अरब खलीफे हशाम के प्रतिनिधि (भारतीय प्रदेशों के शासक) जुनैद की सेना ने मारवाड़, भीनमाल, अजमेर, गुजरात
आदि राज्यों पर चढाई की थी। विक्रम की 9 वीं शताब्दी में बलोचों का आक्रमण हुआ। 11वीं शती में जिस समय महमूद गजनवी ने सोमनाथ पर चढ़ाई की थी उन दिनों गजनवी वंश के हाकिमों की सेनाएं लाहौर से आगे बढ़ कर मारवाड़ के भिन्न-भिन्न प्रदेशों पर हमला करती रही। इस समय इनके अनेक आक्रमण मारवाड़ के विभिन्न भागों में हुए।

यद्यपि राव टीडा (वि.सं. 1321-1352) के समय में ही मारवाड़ के अधिकांश हिस्से पर मुसलमानों का अधिकार हो गया था। तथापि महवे के समान ही मारवाड़ में कतिपय ऐसे प्रसिद्ध ठिकाने (राज्य) थे जहां पर हिन्दू शासकों का राज्य मुस्लिम आक्रान्ताओं से संघर्ष करता हुआ कहीं निरन्तर तो कहीं विभिन्न रूप से, विराम के साथ अस्तित्व में था।

बाबा रामदेवः इतीहास एवं साहित्य
लेखकः प्रो.(डॉ.) सोनाराम बिस्नोई

पूर्व अद्य्यक्ष राजस्थानी विभाग
जयनारायण व्यास वश्व विदद्य्यालय-जोधपुर

पूर्व अद्य्यक्ष राजस्थानी भाषा
साहित्य एवं संस्कृति अकादमी-बिकानेर

प्रेषित एवं संकलन:
मयुर सिध्धपुरा- जामनगर

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