मेवाड़ निवासी जरगा को पर्चा :
मेवाड़ में ‘जरगा’ नामक पहाड़ी पर शिवरात्रि के अवसर पर रामदेवजी का ‘जमा’ लगता है एवं मेला भरता है। इस मेले की पृष्ठभूमि के विषय में कहा जाता है कि बळाई जाति के जरगा नामक एक व्यक्ति को रामदेवजी मिले और उसे अपना घोड़ा थमा कर अदृश्य हो गये। बारह वर्ष बाद वे पुनः प्रकट हुए, जब तक जरगा प्रतीक्षा करता हुआ सूख कर कंकाल हो गया। रामदेवजी ने उसे पुनः जीवित किया और तभी से उस स्थान पर रामदेवजी का मेला भरने लगा, जिसमें सभी जातियों के लोग बिना किसी भेद-भाव के, छुआछूत का ध्यान रखे बिना एकत्र होते है। विदुर कृत छंद से तथ्य की पुष्टि होती है –
‘जाइये जंबूदीप जरगई ध्याईय पछिम धणी,
हंसराज घोड़ो जीण जोड़ो, चौकड़े दीधई चरई।
सेवग तीरह जात भीरइ, कुलि सह वीनती करई।।
श्री अगरचन्द नाहटा द्वारा प्रकाशित ‘मेवाड़ के कवि विदुर के दो पश्चिमाधीश छंद’ शीर्षक लेख में भी रामदेवजी के इसी मेले का संकेत है।
महाराणा कुम्भा को पर्चा :
विदुर कृत छंद में मेवाड़ के महाराणा कुंभा द्वारा रामदेवजी की सेवा (पूजा) का उल्लेख है। मालवे के बादशाह सुलतान महमूद खिलजी तथा सुलतान कुतुबुद्दीन ने मेवाड़ पर कई आक्रमण किये थे, जिनमें उनकी पराजय हुई।
इन युद्धों में अपनी विजय की कामना से महाराणा कुंभा ने रामदेवजी का स्मरण किया था। निम्नलिखित पंक्तियां इसी आशय को स्पष्ट करती हैं –
जुगति कुतब देसि राणै जांणि।
पोहप सुध दध अष्यरपाणी, विगति न लाधो रात्रि विहांणी।।
थान मांन हूं सरणै थारै, मैं बांदो तूं साहिब म्हारै।
मोरा दुसमण तूं हीज मारे, बाबा हूं बलिहारी थारै।।
कीधी सेवा रांणै कूँ भै, आगै बे करि जोड़े उभै।
डीबी पावरि घका डाबा, बलिहारी हूं थारै बाबा।।
मेवाड़ के सेठ दलाजी को पर्चा :
कहा जाता है कि मेवाड़ के किसी ग्राम में दलाजी (दोलजी) नाम का एक ओसवाल महाजन रहता था। धन-सम्पत्ति की उसके पास कमी नहीं थी किन्तु सन्तान के अभाव में वह दिन-रात चिन्तित रहता था। किसी साधु के कहने से वह रामदेवजी की पूजा करने लगा और उसने ‘मनौती’ बोली कि यदि मुझे पुत्र प्राप्ति हो जाय तो रूणीचा जाकर रामदेवजी के दर्शन करूंगा और सामर्थ्यानुसार एक मन्दिर बनवाऊंगा।
इस ‘मनौती’ के नौ मास पश्चात् उसकी पली के गर्भ से पुत्र का जन्म हुआ। वह बालक जब 5 वर्ष का हो गया तो सेठ और सेठानी दोनों उसे साथ लेकर कुछ धनसम्पत्ति सहित ऊंट पर रामदेवरा (रूणीचा) के लिए रवाना हो गये। मार्ग में एक लुटेरे ने उनका पीछा कर लिया और वह यह कह कर उनके साथ हो गया कि उसे भी रूणीचा जाना।
अजमेर से कुछ दूर ‘बरांठिया’ गांव के पास उन्हें रात हो गई। अवसर पाकर लुटेरे ने अपना वास्तविक स्वरूप दिखा ही दिया। उसने सेठ से ऊंट झेंकने (बैठाने) के लिए कहा और कटार दिखा कर धमकी देते हुए उसकी समस्त सम्पत्ति हड़प ली तथा जाते जाते सेठ की गर्दन भी काट गया और उसी ऊंट पर चढ़ कर भाग गया।
रात्रि में उस निर्जन वन में अपने बच्चे को साथ लिए सेठानी करुण विलाप करती हई रामदेवजी को पुकार रही थी। अबला की पुकार सुन कर दुष्टों के संहारक और भक्तों के उद्धारक भगवान् रामदेवजी अपने लीले घोड़े पर सवार होकर तत्काल वहां आ पहुँचे (प्रकट हुए) –
लीलो लीलो घोडलो, हाथ में है सैल।
रामदेवजी पधारिया,बाणिये री बेल।।
आते ही रामदेवजी ने उस अबला से अपने पति का कटा हुआ सिर गर्दन से जोड़ने के लिए कहा। सेठानी ने जब ऐसा किया तो सिर जुड़ गया और तत्क्षण दलाजी जीवित हो गया। वह उठ खड़ा हुआ, सम्मुख रामदेवजी का दर्शन करके आश्चर्यचकित हुआ। उसको यह विश्वास नहीं हो रहा था कि किसी ने उसको मार दिया किन्तु जब उसकी पत्नी ने उस चोटी के बारे में बताया जिसका कि सिरा गर्दन और सिर के बीच दब जाने से ‘गाली’ बन गई थी तब दलाजी ने इस घटना पर विश्वास किया।
रामदेवजी ने भक्त को इस तरह जीवनदान देकर चोर का पीछा किया एवं दण्डस्वरूप उसे पंगु तथा कुष्ठी कर दिया।
धीरे-धीरे चोरड़ा कितीक दूर जाय।
जातरी रो माल किण विध खाय।
पगे कीनो पांगळी, मुख दीनी कोढ़।
दुनियां देखण ने बाबा जीवतो छोड़।
रामदेवजी ने दलाजी को आशीर्वाद दिया और अन्तर्धान हो गये। दलाजी ने रामदेवरा की यात्रा की तथा वापिस लौटते समय उसी स्थान पर रामदेवजी का मन्दिर बनवाया जहां रामदेवजी ने उसे जीवन-दान दिया था। अजमेर से कुछ दूर ‘बरांठिया’ नामक ग्राम में (जो कि जयपुर-अजमेर सड़क पर स्थित है) एक नदा के किनारे पर बना हुआ यह मन्दिर आज भी गढ़ की भांति सुशोभित होता है। प्रतिवर्ष यहा पर रामदेवजी का मेला लगता है। यह मन्दिर भी रामदेवजी के प्रसिद्ध धामों में से एक है।
अजमेर से कुछ दूर ‘बरांठिया’ नामक ग्राम में (जो कि जयपुर-अजमेर सड़क पर स्थित है) एक नदी के किनारे पर बना हुआ यह मन्दिर आज भी गढ़ की भांति सुशोभित होता है। प्रतिवर्ष यहा पर रामदेवजी का मेला लगता है। यह मन्दिर भी रामदेवजी के प्रसिद्ध धामों में से एक है। यह ग्राम जोधपुर जिले की ओसियां तहसील में है।
सिरोही निवासी एक अंधे साधु को पर्चा :
कहा जाता है कि यह अन्धा साधु सिरोही से कुछ अन्य लोगों के साथ ‘रूणीचा’ के लिए रवाना हुआ था। ये पैदल चल कर रूणीचा आ रहे थे। थक जाने के कारण ‘डाबड़ी” नामक ग्राम में पहुंचकर इन्होंने रात्रि विश्राम किया। रात को जगने पर ये लोग अंधे को वही छोड़कर चले गये।
थकिया साथ बैठग्या रिण में, सींव डाबड़ी री आता।
आधी रैण रो उठिया छांनै, छोड़ आंधले ने जाता।”
मगत को जब अंधा साधु जगा तो वहां पर कोई नहीं मिला और इधर-उधर पश्चात वह एक खेजड़ी के पास बैठकर रोने लगा। उसे अपने अंधेपन पर आज इतना दुःख हुआ जितना और कभी नहीं हुआ था। रामदेवजी ने अपने भक्त के दु:ख से द्रवीभूत होकर उसके नेत्र खोल दिए और उसे दर्शन दिये। उस दिन के बाद वह साधु वहीं रहने लगा। उस खेजड़ी के पास रामदेवजी के रण (पगलिए) स्थापित करके उनकी पूजा किया करता था। कहा जाता है कि वहीं पर उस साधु ने समाधि ली थी।
डाबड़ी ग्राम में इस साधु की समाधि पर रामदेवजी का एक मन्दिर बनवाया गया जो आज भी स्थित है एवं यहां प्रतिवर्ष रामदेवजी का मेला लगता है। यह स्थान भी रामदेवजी के प्रसिद्ध धामों में से एक है।
नवलगढ़ नरेश को पर्चा :
नवलगढ़ जयपुर से 75 मील पश्चिमोत्तर में स्थित है। यह नगर शार्दूलसिंह के पुत्र नवलसिंह द्वारा वि.सं. 1794 में बसाया गया था। कहते हैं कि नवलसिंह की रानी रामदेवजी की भक्त थी किन्तु नवलसिंह रामदेवजी को नहीं मानता था। रानी को भी यह उलाहना दिया करता था कि ‘ढेढों के देव’ को पूजती हो। रामदेवजी के प्रति इस प्रकार की संकीर्ण बातें सुन कर रानी दुःखी हुआ करती थी किन्तु वह अपने पति को समझाने में असमर्थ थी, वह तो अपने इष्ट बाबा रामदेव में अटूट आस्था रखती हुई नियमपूर्वक उनकी पूजा करती रही। कुछ ही वर्षों बाद राजनीतिक घटना-चक्र ऐसा घूमा कि जयपुर के तत्कालीन महाराजा ईश्वरी सिंह अपने अधीनस्थ नवलसिंह के प्रति किसी सन्देह के कारण क्रोधित हो गये। उन्होंने नवलसिंह को बन्दी बनाकर उसकी जागीर छीन ली। इस घटना से नवलसिंह की रानी को बहत दु:ख हआ वह अपने आराध्य देव रामदेवजी से प्रार्थना करने लगी कि उसके पति को कैद से मुक्त करवाकर उनके स्वाभिमान की रक्षा करें। कहतें भक्त नारी की करुण पुकार सुन कर रामदेवजी ने रात्रि में महाराजा ईश्वरीय को स्वप्न में दर्शन देकर नवलसिंह को मुक्त करने का आदेश दिया। कछ लोग कहते हैं कि कैद में पड़े नवलसिंह को दर्शन दिये उसी समय कैद के ताले भी स्वत खुल गये। रामदेवजी ने कहा कि ‘ढेढ़ों का देव’ रामदेव कांबड़िया तुम्हें मुक्त करवाने आया है।
तुम्हारी रानी मेरी भक्त है, उसी के आदेश से मुझे यहां उपस्थित होना पड़ा। नवलसिंह गिड़गिड़ा रहा था तथा कैद के दरवाजे खुले देखकर भागने को उत्सुक हुआ तभी रामदेवजी यह कहकर अन्तर्धान हो गये कि इस प्रकार छुप कर मत जाओ, तुम्हें ससम्मान पहुंचाकर तुम्हारी जागीरी बहाल की जायेगी। इतने में ही महाराजा ईश्वरी सिंह जी आये, उन्होंने नवलसिंह को राज्योचित सत्कार के पश्चात् उसे स्वयं साथ जाकर ससम्मान नवलगढ़ पहुंचाकर पुन: जागीरी सुपुर्द की। तभी से वह अपनी रानी का सम्मान करने लगा, तथा स्वयं रामदेवजी की पूजा करने लगा। रामदेवजी के प्रति पूर्व में कहे गये कटुवचनों के प्रायश्चितस्वरूप नवलसिंह ने अपने नगर में रामदेवजी का मन्दिर बनवाया। नवलसिंह के जीवनकाल में ही वहां रामदेवजी का मेला भरने लगा। जगदीश सिंह गहलोत के अनुसार नवलसिंह की मृत्यु फरवरी 1780 में हुई।
नवलगढ़ में आज भी प्रतिवर्ष भाद्रपद तथा माह में रामदेवजी का मेला भरता है। यह भी रामदेवजी का एक प्रसिद्ध धाम माना जाता है। शेखावटी क्षेत्र में तो इस मेले की बहुत प्रसिद्धि है।
हेमीबाई को पर्चा :
जोधपुर जिलान्तर्गत फलोदी तहसील के पीलवा ग्राम में गेनीजी री ढ़ाणी प्रसिद्ध है, जहां ‘जाणी’ गोत्रीय विश्नोई रहते हैं। अपनी उदारता और परोपकार के लिए प्रसिद्ध विश्नोई महिला ‘गेनीबाई’ के नाम पर ही यह बस्ती ‘गेनीजी री ढाणी’ के नाम से विख्यात हुई।
हेमीबाई नामक एक अछूत जाति की मेघवंशीय कन्या का बाल्यकाल में ही विवाह कर दिया था। दुर्भाग्यवश उसके मां-बाप का देहान्त हो गया और ससुराल में उसे कटुवचनों के साथ-साथ शारीरिक यातनाएं भी सहन करनी पड़ती थी। अन्ततोगत्वा वह घर छोड़ कर भाग गई। कई दिनों तक भूखी-प्यासी इधर-उधर भटकती रही। एक दिन वर्षा से भीग कर तेज और ठण्डी हवा से कांपती हुई वह संयोगवश गेनीबाई के घर पहुंची तथा रोने लगी। गेनीबाई ने उसे प्रेमपूर्वक आश्रय दिया। गेनीबाई के यहां पारिवारिक सदस्य की भांति रहती हुई वह उनकी गायें चराया करती थी।
एक दिन सूर्यास्त के समय गायें लेकर घर पहुंचने पर उसे ज्ञात हुआ कि एक बूढ़ी गाय जंगल में रह गई। जंगली जानवर उसे मार न दें, इस भय से वह उसे लाने के प्रयोजन से पुन: जंगल में पहुँची, परन्तु गाय गिर पड़ी थी जिसे वह अकेली उठा नहीं सकी। किंकर्तव्यविमूढ़ हेमीबाई उसी गाय के पास बैठी रही। रात्रि अधिक बीत जाने पर उसे हिंसक जानवरों का भय भी होने लगा किन्तु गाय को उस स्थिति में छोड़ कर वह जाना नहीं चाहती थी। वह गाय के पास बैठी रो रही थी कि घोड़े के पौड़ बजे, गाय कान फड़फड़ा कर स्वयं खड़ी हो गई। लीले घोड़े पर असवार रामदेवजी ने प्रकट होकर हेमीबाई को दर्शन दिये तथा यह आदेश दिया कि गेनीबाई के घर के मुख्य द्वार पर दाएं हाथ को स्थित शमि के लघु वृक्ष के पास गड्ढा खोदने पर उसे श्वेत संगमरमर-प्रस्तर के चरण, शंख, कलश तथा झालर आदि पूजा के उपकरण मिलेंगे। उन्हें निकाल कर वहीं पर ‘थान’ स्थापित करके सुबह-शाम पूजा करें।
घर आकर उसने समस्त वृत्तान्त गेनीबाई को कह सुनाया तथा दूसरे दिन प्रात: समस्त परिवारजनों के सम्मुख, रामदेवजी द्वारा बताए गए स्थान से पूजा के उपकरण प्राप्त करके, उस लघु वृक्ष के पास रामदेवजी के थान की स्थापना की और नियमपूर्वक पूजा करने लगी। कुछ समय पश्चात् हेमीबाई ने वहीं अपना पृथक आश्रम बना लिया। रामदेवजी की भक्ति के फलस्वरूप उसे वचन-सिद्धि प्राप्त हुई एवं दूरदूर से श्रद्धालु लोग उसके दर्शनार्थ आने लगे। शुक्ल पक्ष की हर एकादशी को उस आश्रम में रामदेवजी के रात्रि-जागरण का अनुष्ठान हुआ करता था और प्रति वर्ष भादवा तथा माघ की शुक्लपक्षीय एकादशी को रामदेवजी के मेले का आयोजन होने लगा।
भक्त नारी हेमीबाई ने असंख्य लोगों की श्रद्धा अर्जित की एवं 70-75 वर्ष की अवस्था में उसने अपने साधना स्थल पर ही जीवित समाधि ली। उसकी समाधि का चबूतरा वर्तमान समय में भी स्थित है तथा पास में ही रामदेवजी का थान है। यहां प्रति वर्ष भादवा और माघ की शुक्लपक्षीय एकादशी को रामदेवजी का मेला लगता है।
माता श्री आसरीबाई को पर्चा :
आज से अनुमानत: सवा सौ वर्ष पूर्व सिन्ध में थारपारकर जिलान्तर्गत ग्राम खिपरा के एक सिन्धी परिवार में जन्मी आसरी बाई का विवाह 15 वर्ष की आयु में जिला थारपारकर के गांव जुहिली में एक सम्पन्न सिन्धी परिवार में चेलाराम के साथ हुआ। आपके दो पुत्रिया हुई कीमतबाई अब तक जीवित है जो बाबा रामदेवजी की पुजारिन है। असरीबाई को बाबा रामदेवजी ने दो बार स्वप्न में दर्शन देकर अपनी भक्ति के लिए प्रेरित किया। दर्शन विचित्र रूप में दिये – एक बार अश्वमुखी मानव के रूप में और दूसरी बार मानवमुखी अश्व के रूप में।
आसरीबाई इस लीला को नहीं समझी। तैतीस वर्ष की आयु में आसरीबाई विधवा हो गई। इसके बाद स्वप्न में बाबा रामदेवजी ने अपने वास्तविक स्वरूप में दर्शन दिये और आसरीबाई की चोटी खींच कर पीठ पर चिमटा मारते हुए भक्ति करने का आदेश दिया तथा पूजा के लिए चिमटा और धूपदान प्रदान किया। तत्काल आसरीबाई की आंख खुली, बाबा का दर्शन तो उसकी स्मृति में अंकित था परन्तु उनके द्वारा स्वप्न में प्रदत्त धूपदान और चिमटा उसके सम्मुख प्रत्यक्ष विद्यमान थे। आसरीबाई के ससुर ने यह वृतान्त सुना तो इस रहस्य को समझने के लिए सोमपुरी बाबा को बुलवाया जिन्होंने आसरीबाई से सम्पूर्ण विवरण सुनते ही बताया कि आपके पूर्व जन्म के संस्कारों के फलस्वरूप स्वयं द्वारिकाधीश रामदेवजी ने स्वप्न में दर्शन देकर यह धुपदान और चिमटा अपनी पूजा के लिए प्रदान किये हैं। आसरीबाई ने सोमपुरी को अपना गुरु धारण करके उनसे पूजा पाठ की विधि जानने की प्रार्थना की। सोमपुरी ने आसरीबाई को दीक्षा देने से पूर्व बाबा रामदेवजी के आदेश की पुष्टि करने हेतु गोबर से आंगन नीपा, उस पर शुद्ध जल से भरकर ताम्र-कलश रखा तथा उसमें मुट्ठी भर चावल डाले जो पानी में डूबे नहीं तब चांदी का एक रुपया उन चावलों पर रखा वह भी नहीं डूबा, उस पर एक सुपारी रखी और इस चमत्कार से आसरीबाई के लिए रामदेवजी की आराधना के आदेश की पुष्टि मानकर आसरीबाई को बाबारामदेवजी की आराधना की दीक्षा दे दी। आसरीबाई ने अपने घर के एक कोने में बाबा रामदेवजी का थान स्थापित करके उस पर अपने आराध्य देव रामदेवजी के चरण अंकित कर दिये एवं रामदेवजी द्वारा प्रदत्त उसी धूपदान में प्रात: सायं नियमपूर्वक बाबा रामदेवजी की जोत करती रही। बाबा रामदेवजी का नाम जपती हुई दृढ़ विश्वास, अटूट आस्था व एकनिष्ठ आराधना से आसरीबाई स्वयं वचनसिद्ध और अलौकिक शक्ति सम्पन्न हुई तथा माताश्री की संज्ञा से विभूषित होकर जन जीवन में पूज्य हुई। दूर दूर से लोग अपनी कष्ट पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए माताश्री आसरीबाई के आश्रम में आने लगे। माताश्री ने अपने घर में ही रामदेवजी का मंदिर बनवा लिया। बाबा रामदेवजी ने विभिन्न रूपों में प्रकट होकर अपनी भक्त आसरीबाई की अनेक सांसारिक समस्याओं का निराकरण किया। सिन्ध प्रान्त में माताश्री का प्रचार चरमोत्कर्ष पर पहुंचा, दर्शनार्थियों की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ने लगी। यह सब उसके देवर पुत्र को असह्य हो गया। वह मूढ़मति इन श्रद्धालुजनों को सन्देह की दृष्टि से देखता और माताश्री आसरीबाई के प्रति भी उसके हृदय में श्रद्धा नहीं अपितु सन्देह था। उसने माताश्री की भक्ति खंडित करनी चाही परन्तु सफल नहीं हुआ तो ईर्ष्या व द्वेष वशीभूत होकर एक रात्रि में छुरा लेकर माताश्री की हत्या के लिए जा पहुंचा। इसकी कचेष्टा से सर्वथा अनभिज्ञ आसरीबाई गहरी निद्रा में लीन थी, तभी उसने उसके माने पर छूरे का वार किया। तत्काल बाबा रामदेवजी ने अपनी अदृश्य शक्ति से आक्रमणकारी का हाथ पकड़ कर उसे पछाड़ फैंका, वह असह्य वेदना से कराहने लगा, आसरीबाई की भी आंख खुल गई। आस-पड़ोस के लोग भी एकत्रित हो गये। आसरीबाई ने तो उसे क्षमा किया, बाबा के कलश के छीटे लगाये जिससे उसके हाथ से चिपका हुआ छुरा हट गया। वह दुष्ट छ: माह तक असाध्य वेदना भोगता हुआ मर गया।
कुछ समय बाद माताश्री आसरीबाई अपने जन्म स्थान खिपरा में आकर रहने लगी। यहां पर भी बाबा रामदेजी का मंदिर बनवाया। दीन दुःखियों व साधु जनों की सेवा में प्रवृत्त आसरीबाई ने लोक हितार्थ कुए आदि के कई निर्माण कार्य भी करवाये। आवश्यक अन्न-धन की पूर्ति यथा समय रहस्यमयी रूप से प्रकट होकर स्वयं रामदेवजी करते रहे, जिससे माताश्री की प्रतिष्ठा सदैव अक्षुण रही।
अपने ईष्टदेव के मुख्य धाम रूणीचा (रामदेवरा) की यात्रा वह प्रतिवर्ष करती रही, एक बार वह अन्य श्रद्धालुजनों के संग रूणीचा आई तो वहां अकस्मात ही महामारी का प्रकोप हुआ। आसरीबाई ने रामदेवजी की जोत प्रज्वलित करनी चाही परन्तु भयंकर आंधी के कारण अनेक यत्न करने पर भी जोत प्रज्वलित नहीं हुई तो सहसा एक वृद्ध पुरुष का आगमन हुआ जिसने धूपदान लिया, तो जोत जगमगा उठी। मना करने पर भी उसने माताश्री की आरती उतारी और अन्तर्धान हो गया। तब स्पष्ट हुआ कि स्वयं रामदेवजी ने अपनी भक्त आसरीबाई का इस प्रकार अभिनन्दन किया। जोत के बाद आसरीबाई ने धपूदान से बभूती लेकर महामारी के प्रकोप से दम तोड़ते लोगों के लगाई जिससे वे तत्काल स्वस्थ हो गये और कुशलक्षेम से आसरीबाई का यह संघ पुनः सिन्ध पहुंचा।
भारत-पाक विभाजन के तीन वर्ष पूर्व माताश्री आसरीबाई ने इसकी भविष्यवाणी कर दी थी तथा भावी संकट और नरसंहार का संकेत देते हुए अपने लोगों को मारवाड़ के लिए प्रस्थान की प्रेरणा दी किन्तु उनके नाती नहीं माने। अन्ततोगत्वा देश विभाजन हुआ तथा आसरीबाई अपनी पुत्री कीमतबाई व उसके पुत्रों सहित बाड़मेर आकर रही।
यहां पर भी वह जन-सेवा का कार्य पूर्ववत् करती रही, फलस्वरूप एक बार अल्प समय के लिए आर्थिक संकट आ गया। उसी समय बाड़मेर और चौहटन के मध्य स्थित तारातरा गांव में धर्मपुरी ने अपने मठ में भण्डारा किया। वहां आमन्त्रित साधुजनों में से चार पुनः लौटते समय अपने शिष्यों सहित आसरीबाई के घर रुके। उनका यथोचित आतिथ्य सत्कार किया गया, भोजनोपरान्त वे सो गये किन्तु आसरीबाई को चिन्ता थी कि एक भी रुपया पास में नहीं है, प्रात: उठी और रामदेवजी की पूजा के लिए सामग्री हेतु सन्दूक खोली तो रेशमी धागे से बंधे एक हजार आठ रुपये मिले। चार रुपये साधुओं को दिये एक हजार कर्ज के चुकाये और चार रुपये बचे जिनसे पूजा की। वह मंजुषा आसरीबाई का अक्षय कोशागार बन गया और सदैव उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति होती रही, जन-सेवा का कार्य निर्बाध चलता रहा।
माताश्री आसरीबाई रामदेवजी की भक्ति से अलौकिक शक्ति-सम्पन्न हो गई थी। उसने अपनी शरण में आये अनेक असाध्य रोग-ग्रसित लोगों को स्वास्थ्य लाभ प्रदान किया। निपुत्रों को पुत्र, अन्धों को आँखे तथा पंगु लोगों को चलने की शक्ति प्रदान की। माताश्री के आशीर्वाद से उल्लिखित चमत्कार प्राप्तकर्ताओं में से कई लोग आज भी कुशलक्षेम से जी रहे हैं। माताश्री के चमत्कारों के वे प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। माताश्री के ऐसे चमत्कार अनन्त हैं जो इस संदर्भ ग्रंथ की सीमा में वर्णनातीत हैं।अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में माताश्री जोधपुर आकर रहने लगी और पूर्ववत् जनसेवा तथा ईष्ट आराधना में रत रही।
अपने स्वर्गवास से आठ वर्ष पूर्व माताश्री ने स्वजनों के सम्मुख भविष्य वाणी की थी कि अमुख दिन गंगा के तट पर पेट दर्द के निमित्त बनाकर वह देह-त्याग करेगी। यथा समय माताश्री अपने परम शिष्य भाऊरामचन्द्र तथा प्रिय पुत्री कीमतबाई को साथ लेकर हरिद्वार गई। गंगास्नान के बाद उसके पेट में भयंकर पीड़ा हुई, तो भाऊ रामचन्द्र व कीमतबाई धैर्य खो कर रोने लगे। माताश्री ने उन्हें यह कह कर आश्वस्त किया कि यद्यपि आज के दिन मृत्यु निश्चित थी परन्तु अभी सूर्य दक्षिणायन में है अत: मैं देह नहीं त्यागूंगी। माताश्री के पेट की पीड़ा मिट गई और अपने शिष्य तथा पुत्री के साथ पुन: जोधपुर होते हुए बाड़मेर जाकर सूर्य के उत्तरायण में आने की प्रतीक्षा करती रही। जब सूर्य उत्तरायण में आया तो माताश्री स्वेच्छा से देह-त्याग करके परमज्योति में लीन हो गई। माताश्री आसरीबाई के जीवनवृत्त की जानकारी उनके परम शिष्य व रामदेवजी के अनन्य उपासक (जिन्हें माताश्री का अलौकिक चमत्कार व आशीर्वाद प्राप्त है) भाऊश्री रामचन्द्र के सौजन्य से प्राप्त हुई, जिसे संक्षिप्त रूप में इस लेख में प्रस्तुत किया गया।
बाडमेर में माताश्री की समाधि स्थल पर भाऊ श्री रामचन्द्र ने संगमरमर का सुन्दर परक निर्मित करवाया। वहीं रामदेवजी का मन्दिर भी बनवाया गया। जोधपुर में माताश्री आसरीबाई की स्मृति में बाबा रामदेवजी का भव्य मंदिर निर्मित हुआ तथा उसके समीप ही भाऊ श्री रामचन्द्र ने यात्रियों की सुविधा के लिए विशाल धर्मशाला बनवाई। बाड़मेर में माताश्री की पुण्यतिथि के अवसर पर मेला लगता है तथा जोधपुर में सरदारपुरा में बाबा रामदेवजी के उक्त मंदिर में प्रतिवर्ष भाद्रपद तथा माह में बाबा रामदेवजी का विशाल मेला आयोजित होता है।
क्रमशः पोस्ट …..
बाबा रामदेवः इतीहास एवं साहित्य
लेखकः प्रो.(डॉ.) सोनाराम बिस्नोई
पूर्व अद्य्यक्ष राजस्थानी विभाग
जयनारायण व्यास वश्व विदद्य्यालय – जोधपुर
पूर्व अद्य्यक्ष राजस्थानी भाषा
साहित्य एवं संस्कृति अकादमी- बिकानेर
प्रेषित एवं संकलनः
मयुर.सिध्धपुरा- जामनगर
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