राजनीतिक एवं सांस्कृतिक परिवेश।

बाबा रामदेवजीः इतीहास एवं साहित्य
लेखकः प्रो.(डॉ.) सोनाराम बीस्नोई

राजनीतिक एवं सांस्कृतिक परिवेश ।

मुस्लिम राज्य की स्थापना:

रामदेवजी के व्यक्तित्व का वैभव और कृतित्व का महत्व समझने के लिये तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक दशाओं का सामान्य परिचय वांछित है तथा उससे पूर्व की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का संक्षिप्त परिचय भी आवश्यक है।

रामदेवजी के आविर्भाव से लगभग साढ़े तीन सौ वर्ष पूर्व उनके पूर्वज जुनपाल के समय (विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य) भारत पर मुसलमानों के आक्रमण आरम्भ हुए। पहला आक्रमणकारी महमूद गजनवी था जिसका पहला आक्रमण वि.सं. 1058 में हुआ। जुनपाल ने पूर्ण पराक्रम दिखाया फिर भी महमूद को परास्त नहीं कर सका। सन्धि के रूप में अपार धन सम्पत्ति लेकर महमूद वापिस लौटा। जुनपाल के पुत्र अनंगपाल के साथ विश्वासघात करके उसके दौहित्र पृथ्वीराज चौहान ने (जो उस समय अजमेर का शासक था) दिल्ली का आधिपत्य कर लिया। यह घटना वि. सं. 1131 की है। वि.सं. 1131 तक दिल्ली पर रामदेवजी के पूर्वज तुंवरों का ही राज्य रहा था। इसके बाद अजमेर और दिल्ली पर चौहान राज्य स्थापित हुआ। उस समय कन्नौज का राजा जयचन्द राठौड़ था, जो पृथ्वीराज चौहान का मासी का बेटा भाई कहा जाता है। इन दोनों में पारस्परिक द्वेष और प्रतिद्वन्दिता थी। दोनों की विस्तारवादी नीतियों में संघर्ष था। पृथ्वीराज के विरुद्ध चन्देलों को सहायता देकर जयचंद ने पृथ्वीराज के असन्तोष को बढ़ावा दिया। बदले में पृथ्वीराज ने जयचन्द की पुत्री संयोगिता का स्वयंवर स्थल से अपहरण कर जयचन्द को अपमानित किया।

राजपूत राजाओं की इस प्रकार की फूट-फजीती की स्थिति में भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना हुई। वि. सं. 1235 में मुहम्मद गौरी ने गजनवी वंश के शासक को बन्दी बनाकर लाहोर पर अपना आधिपत्य स्थापित किया तत्पश्चात् वि.सं. 1247 में सरहिन्द पर भी अधिकार कर लिया, जिससे पृथ्वीराज चौहान को खतरा उत्पन्न हो गया। तराइन के क्षेत्र में दोनों में भयंकर युद्ध हुआ जिसमें पृथ्वीराज विजयी हुआ, घायल अवस्था में मुहम्मद गौरी अपने सैनिक की सहायता से प्राण बचा कर भागने में सफल हुआ।

मुस्लिम राज्य की स्थापना :

वि.सं. 1249 (ई.सन् 1192) में मुहम्मद गौरी ने विशाल सेना सहित पुन: भारत में प्रवेश किया। तराइन में आकर रुका। पृथ्वीराज चौहान भी आक्रमण के मुकाबले के लिये उसी मैदान में आ डटा। मुहम्मद गौरी ने पारस्परिक समझौते के लिए समय मांग, अस्थायी सन्धि के रूप में तब तक युद्ध न करने की बात तय की, पृथ्वीराज इस भुलावे में आ गया, उसकी सेना निश्चिन्त हो गई किन्तु मुहम्मद गौरी ने अपनी विशाल सेना को चार भागों में विभाजित करके रातों रात पृथ्वीराज की सेना को गुप्त रूप से चारों दिशाओं से घेर कर प्रातः काल आकस्मिक रूप से आक्रमण कर दिया। पृथ्वीराज की पराजय हुई वह लड़ता हुआ युद्ध क्षेत्र से पार हो गया, परन्तु सिरसा के आस-पास पकड़ा गया और मार दिया गया।

युद्ध क्षेत्र में वीरता से लड़ते हुए पृथ्वीराज का पकड़ा जाना, बन्दी बनाकर गजनी ले जाया जाना तथा अन्धा किया जाना, कवि चन्द वरदाई के दूहे से अनुमान लगाकर बाण चलाकर गौरी को मार गिराना आदि घटनाएं एक जनश्रुति के रूप में बहुत प्रसिद्ध है। इसी प्रसंग की ये पंक्तियां चन्द वरदायी के दोहे के रूप में लोक प्रचलित है –

चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण।
ऐते पे गौरी है, चूकै मत चौहाण।।

इस जनश्रुति का कोई प्रामाणिक आधार नहीं है। इतिहासकार इसे कल्पना मात्र मानते हैं। डॉ. दशरथ शर्मा जैसे सुप्रसिद्ध आस्तिक इतिहासकार ने भी इस कथा को काल्पनिक माना है।  उसकी पराजय के परिणाम स्वरूप भारत की प्रजा को परतन्त्रता ने ऐसा जकड़ा कि वह 1947 ई. (वि. 2004) की 14 अगस्त तक मुक्त नहीं हो सकी।

इस प्रकार बाबा रामदेवजी से एक सौ साठ वर्ष पूर्व भारत पर मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना हुई। 90वर्ष तक तुर्कवंश का राज्य रहा फिर 13 जून 1290 ई. में तुर्कवंश के कैकूबाद को मारकर और क्यूमर्स को कारागार में बन्द कर खिलजी वंश का जलालुद्दीन दिल्ली के सिंहासन पर बैठा। उसकी हत्या करके (उसी का भतीजा) अलाउद्दीन खिलजी ई. सन् 1296 (वि. सं. 1353 में सुल्तान बना) गुजरात, मालवा और राजस्थान की विजय से सम्पूर्ण उत्तरी भारत अलाउद्दीन के शासन के अन्तर्गत आ गया।’ राजस्थान के रणथम्भौर, चित्तौड़, सिवाना, जालोर आदि प्रमुख दुर्गों पर अधिकार हो जाने से उसे दक्षिण भारत को जीतने में काफी सहायता मिली। हिन्दू धर्म और संस्कृति को अलाउद्दीन ने बहुत आघात पहुँचाया था। पुरातत्वाचार्य मुनि जिनविजय के शब्दों में ”वह विषयलोलुप, मदान्ध, धर्म-ध्वंसक, हत्यारा तुर्क मुसलमान भारत की हिन्दू जाति की उस सर्वश्रेष्ठ नारी का सतीत्व नष्ट कर उसे अपनी गुलाम बन्दिनी बनाना चाहता था; और ऐसा करके वह हिन्दू जाति के धार्मिक और सांस्कृतिक हृदयों का विदारण कर, उनको अपने कब्रिस्तानों में दफनाना चाहता था। उसने इसके पूर्व ही इसी उद्देश्य से गुजरात के महासमृद्ध साम्राज्य को ध्वस्त कर दिया था, महाराष्ट्र के देवगिरी के महाराज्य को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था, राजस्थान के उत्तर पूर्वी सीमा के प्रबल रक्षक रणथम्भौर दुर्ग को भस्मसात् कर दिया था। वह हत्यारा अपने चाचा जलालुद्दीन की निर्मम हत्या करा कर उसके दिल्ली के सिंहासन को कब्जे कर, सारे भारत के राष्ट्रीय तीर्थ समान चित्तौड़ दुर्ग को धराशाही कर देना चाहता था और उसके गर्वोन्नत राजवंश का विच्छेद कर उस युग की पद्मिनी नारी के पवित्र शील को भ्रष्ट कर अपनी अधमतम पाशवी वृत्ति को परितुष्ट करना चाहता था।

अलाउद्दीन बहुत महत्वाकांक्षी, विश्वासघाती और अत्यन्त क्रूर प्रकृति का लड़ाकू योद्धा था। वह बहुत ही धनलोलुप और अधम एवं लम्पट था। उसने अपनी लम्पटता के पोषण के निमित्त अनेक मुस्लिम और हिन्दू स्त्रियों के जीवन को भ्रष्ट किया था और जिस किसी हिन्द राज्य की संपत्ति को वह हस्तगत करता था और उसके साथ उन राजवंशीय सुन्दर स्त्रियों के सतीत्व को भी नष्ट करता था। । अन्ततोगत्वा गुजरात में इसके विरुद्ध विद्रोह हुआ, चित्तौड़ के राणा हम्मीर ने स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी – और देवगिरी में हरपाल देव ने मुस्लिम सेना को खदेड कर स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी। इन घटनाओं से वह बहुत अधिक निराश होकर रुग्णावस्था में जनवरी 1316 ई. (वि.सं. 1373) में मृत्यु को प्राप्त हुआ।

खिलजी वंश का राज्य केवल 24 वर्ष रहा, इस वंश का अन्तिम सुल्तान नासिरूद्दीन खुसरोशाह हुआ। सितम्बर 1320 ई. (1377 वि.सं.) में उसे मौत के घाट उतार कर गियासुद्दीन तुगलक दिल्ली के सिंहासन पर बैठा।

छल-कपट, षड़यन्त्र और रक्तपात से स्थापित खिलजी वंश का राज्य इन्हीं दुर्गुणों का शिकार होकर नष्ट भी हो गया और तुगलक वंश का राज्य स्थापित हुआ।

फरवरी-मार्च 1325 ई. (वि.सं. 1382) में गियासुद्दीन की मृत्यु के बाद उसका पुत्र उलुग खां (जिसने मुहम्मद तुगलक शाह) की उपाधि धारण की थी दिल्ली के सिंहासन पर बैठा। तब लगभग सम्पूर्ण भारत दिल्ली की अधीनता में था। विरासत के रूप में उसे एक सुसंगठित एवं व्यवस्थित प्रशासन मिला। किन्तु अपने दोहरे व्यक्तित्व के कारण उसे जीवन के अन्त में घोर निराशा मिली। डॉ. ईश्वरी प्रसाद की मान्यतानुसार उसमें परस्पर विरोधी गुणों का सम्मिश्रण था। वह विद्वान था तो मूर्ख भी, क्रूर था तो दयालु भी और उदार था तो कठोर भी। कुल मिलाकर वह सनकी था। उसकी मृत्यु के बाद 13 मार्च 1351 ई. (वि. सं. 1408) में अर्थात् बाबा रामदेवजी के जन्म से लगभग 1 वर्ष पूर्व फिरोजशाह तुगलक दिल्ली के सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। और रामदेवजी की समाधि (वि.सं. 1442) के लगभग 1 वर्ष बाद तक दिल्ली पर उसका राज्य रहा। निष्कर्ष यह हुआ कि बाबा रामदेवजी के जन्म से पूर्व प्रायः सम्पूर्ण भारत पर मुस्लिम साम्राज्य स्थापित हो चुका था। जिसके चरमोत्कर्ष काल में रामदेवजी का आविर्भाव हुआ, ठीक उनके समकालीन फीरोज़शाह तुगलक था।

फिरोजशाह तुगलक :

यह मुहम्मद तुगलक के चाचा रज्जब का पुत्र था। इसकी मां नैला बीबी एक राजपूत सरदार रणमल की पुत्री थी और रज्जब का विवाह उसके साथ बलपूर्वक किया गया था। इस प्रकार उसकी नसों में हिन्दू-मुस्लिम रक्त का सम्मिश्रण था उसका जन्म 1309 ई. (वि सं. 1366) में हुआ था और राज्यारोहण 23 मार्च 1351 ई. में हुआ। | फिरोजशाह ने राजनीति को धर्म पर आधारित बना दिया। एक हिन्दू स्त्री से उत्पन्न होने के कारण उसमें जो हीन भावना विद्यमान थी उसको छिपाने के लिए अथवा उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप वह अपने आप को शुद्ध तुर्की माता-पिता से उत्पन्न लोगों से कम अच्छा मुसलमान नहीं समझता था। उसने अपने आप को कट्टर मुसलमान सिद्ध करनके के लिए अपने राजनीतिक व शासकीय कार्यों में उलेमाओं से परामर्श लेना एवं तद्नुसार शासन-संचालन शुरू किया। उसका दृष्टिकोण संकुचित तथा संकीर्ण था। डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने इसके शासन के सम्बन्ध में लिखा है – वह बड़ा ही कट्टरपंथी था जिसने कट्टरता के सबसे सीधे मार्ग को ग्रहण किया और शासन के संचालन में उसने कुरान के धार्मिक सिद्धान्तों का अनुसरण किया।

उसने हिन्दुओं के साथ अनुदार नीति का अनुसरण किया, धार्मिक असहिष्णुता की नीति अपनायी जिसके अनुसार हिन्दुओं के साथ भयंकर अत्याचार किया। हिन्दुओं के मन्दिरों तथा मूर्तियों को उसी प्रकार तुड़वाया जिस प्रकार उसके पूर्ववर्ती कट्टरपंथी सुल्तानों ने तुड़वाया था।

रामदेवजी के एक पूर्व राजा जावल ज्वालामुखी देवी के अनन्य भक्त थे जिन्होंने कांगड़े का किला बनवाया था। जावल के समय से ही यहां पर तुंवरों (तोमर वंश) का राज्य मुहम्मद गौरी तक रहा, उसके बाद वहां भी गौरी का राज्य स्थापित हो गया था किन्तु मुहम्मद तुगलक के शासनकाल तक वहां पर पुनः तुंवर राज्य हो गया था। फिरोजशाह तुगलक ने इन पर आक्रमण किया और धन सम्पदा के लिए प्रसिद्ध ज्वालामुखी देवी के मन्दिर को नष्ट-भ्रष्ट करवा दिया और उसमें प्रस्थापित देवी की मूर्ति के टुकड़ेटुकड़े करवा कर धार्मिक कट्टरता को सिद्ध किया। 6 माह तक वहां के हिन्दू शासक ने वीरता के साथ सामना किया परन्तु अन्त में पराधीनता स्वीकार करनी पड़ी।

फिरोजशाह तुगलक गैर-सुन्नी मुस्लिम लोगों के प्रति भी उदार नहीं था, उसने उन पर भी अत्याचार किये हिन्दुओं के प्रति उदारता का प्रश्न ही नहीं उठता, राजकीय शक्ति और साधनों की सहायता से हजारों हिन्दुओं को मौत के घाट उतारा, हजारों को बलपूर्वक मुसलमान बनाया और उनके धार्मिक स्थानों तथा मूर्तियों का विध्वंस किया। उदाहरण के लिए पुरी में जगन्नाथ के मन्दिर को नष्ट करके मूर्तियां समुद्र में फिंकवा दी, कांगड़ा में ज्वालामुखी की मूर्ति तोड़ी, इस प्रकार के कुकृत्यों द्वारा धार्मिक कट्टरपंथी प्रवृत्ति के पोषण के अतिरिक्त उसने कोई विशेष सफलता अर्जित नहीं की, न ही साम्राज्य का विस्तार किया। जीवन के उत्तरार्द्ध में वह पूर्ण निराश हो गया – बैचेन और दु:खी रहने लगा। वृद्धावस्था के कारण स्वयं शासन संभालने में असमर्थ हो गया, गृह कलह उत्पन्न हो गई, अन्ततोगतवा उसके पुत्र शाहजादा मुहम्मद ने उसके सामने प्रधानमंत्री खाने जहां मकबूल का रहस्योद्घाटन किया कि वह सिंहासन लेना चाहता है। मेवाड़ की ओर भागते हुए प्रधानमंत्री को पकड़ लिया गया और उसकी हत्या कर दी गई। फिर भी तुगलक साम्राज्य उसके देखते-देखते कमजोर हो गया था, ऐसी स्थिति में 80 वर्ष की आयु में 1388 ई. (वि.सं. 1445) में उसकी मृत्यु हो गई।

पृथ्वीराज को परास्त करने के बाद मुहम्मद गौरी ने जयचन्द को भी नहीं छोड़ा। 1194 ई. (वि.सं. 1251) में गौरी ने कन्नौज पर आक्रमण किया। इटावा और कन्नौज के बीच यमुना के किनारे चन्दवार नामक स्थान पर जयचन्द और गौरी की सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ जिसमें जयचन्द मारा गया और उसके सैनिक युद्ध क्षेत्र में भाग गये।

इस प्रकार कन्नौज से राठौड़ का राज्य गया और इसी भागा-दौड़ के उन दिनों में राठौड़ सीहा (राव सोहा) मारवाड़ में आया। गौरी शंकर हीराचन्द ओझा के अनुसार वि.सं. 1300 के आसपास कन्नौज की तरफ से राठौड़ कुंवर सेतराम का पुत्र सीहा साधारण स्थिति में मारवाड़ में आया और उसके वंशजों ने क्रमशः अपना राज्य बढ़ाते हुए सारे मारवाड़ प्रदेश पर अधिकार कर लिया। सीहा के अंत के विषय में ओझाजी लिखते है कि सीहा पाली के आसपास रहता था और उसके निकट ही मरा था।

“सीहा के विषय में जो कुछ हमें निश्चय रूप से ज्ञात होता है वह यह है कि वह राठौड कंवर सेतराम का पुत्र था। उसकी एक स्त्री पार्वती सोलंकी वंश की थी और पाली से चौदह मील उत्तर-पश्चिम में बीठू गांव के पास वि.सं. 1330 कार्तिक बदी 12 (ई.स. 1273 ता. 9 अक्टूबर) सोमवार को उसकी मृत्यु हुई।” |

रामदेवजी के आविर्भाव तक वर्तमान राजस्थान के जयपुर, जोधपुर, बीकानेर आदि प्रसिद्ध नगरों की स्थापना ही नहीं हुई थी। उस समय खेड़ और मेहवा’ इस क्षेत्र में हिन्दुओं की राजधानी थी तथा राव सीहा के ही वंश-धर रावळ मालजी (मल्लीनाथजी) यहां के शासक थे। | गुजरात के बादशाह की सेना द्वारा महेवे पर आक्रमण के समय मल्लीनाथ के पितामह राव टीडा, मृत्यु को प्राप्त हुए तथा राव टीडा के पुत्र (मल्लीनाथजी के पिता) सलखाजी को बन्दी बनाये जाने का उल्लेख मुहणौत नैणसी की ख्यात में हुआ। इससे भी महेवा इनकी राजधानी सिद्ध होता है। इन राव टीडा के समय में मारवाड़ के अधिकांश हिस्से पर मुसलमानों का अधिकार हो गया था। दयालदास की ख्यात के अनुसार सलखा का जन्म वि. सं. 1365 में और उसकी मृत्यु वि.सं. 1414 श्रावण बदी 3 को हुई। जोधपुर राज्य की ख्यात के अनुसार सलखा एक छोटा ठाकुर था और सिवाणा के गांव गोपड़ी में रहता था, जहां उसके ज्येष्ठ पुत्र मल्लीनाथ का जन्म हुआ। टॉड के अनुसार उसके वंशज सलखावत अब तक महेवा तथा राड़धर में बड़ी संख्या में विद्यमान है, जो भोमिये हैं।

क्रमशः पोस्ट….

बाबा रामदेवः इतीहास एवं साहित्य
लेखकः प्रो.(डॉ.) सोनाराम बिस्नोई

पूर्व अद्य्यक्ष राजस्थानी विभाग
जयनारायण व्यास विश्व विदद्य्यालय – जोधपुर

पूर्व अद्य्यक्ष राजस्थानी भाषा
साहित्य एवं संस्कृति अकादमी- बिकानेर

प्रेषित एवं संकलनः
मयुर.सिध्धपुरा- जामनगर

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