बाबा रामदेवः इतीहास एवं साहित्य मे से प्रस्तुती
लेखकः प्रो.(डॉ.) सोनाराम बीसनोई
राजस्थान के पांचो पीरो मे रामदेवजी एक लोकदेवता के रुपमे
पाबू हडबु रामदे, मांगलिया मेहा ।
पांचो पीर पधारजो, गोगाजी जेहा ॥
राजस्थान और गुजरात में रामदेवजी को एक लोक-देवता के रूप में पूजा जाता है। लोक-देवता का सम्बन्ध किसी जाति या कुल विशेष से नहीं अपितु सामान्य जनजीवन से होता है। ‘लोक’ शब्द ग्राम्य-जीवन का द्योतक है। रामदेवजी की मान्यता भी ग्रामीण जीवन में ही अधिक है। वहां हर जाति के घरों में रामदेवजी की पूजा होती है। संगमरमर अथवा जैसलमेर के पीले पत्थर से बने रामदेवजी के चरण (रामदेवजी जीवनवृत्त के पगलिये) लोग अपने अपने घरों में स्थापित करते हैं और उनके चरणों पर मन्दिर के आकार का ‘आळा’ बनाया जाता है। सामान्यतया अपने घर की चारदिवारी में स्थित खेजड़ी के किसी वृक्ष के नीचे जमीन से 2-3 फीट ऊंचा चबूतरा बना कर उस पर ‘आळा’ बना कर उसमें रामदेवजी के ‘पगलिये स्थापित किये जाते हैं और खेजड़ी पर श्वेत वस्त्र की रामदेवजी की ध्वजा लहराई जाती है, जिस पर लाल कपड़े से रामदेवजी के चरण बनाये जाते हैं।
पिंचरंग नेजा रामा पाळ सरवर की।
देवळ धाम ने धरम धजा।।
पिचरंग नेजा फरहरै जठे रमिया रामपीर जी।।
दळ में नेजा फरहरै बाबा देवरे में नेजा फरहरै।।
इस तरह के स्थान को रामदेवजी का ‘थान’ कहा जाता है। इनके मन्दिरों को देवळ तथा देवरा कहा जाता है जिस पर भी श्वेत रंग की ध्वजा फहराई जाती है या पांच रंगों की ध्वजा फहराई जाती है जिसे ‘नेजा’ कहते हैं।’
देवळ दीसे, धूपज मैके, गरहर भर धुराणी।।
पिचरंग नेजा सिकर फरूके, जू रूणीचे जुड़ी जात जुग जांणी।।
वैसे तो रामदेवजी के मन्दिर गुजरात और राजस्थान में हर गांव और नगर में मिल जाते हैं, किन्तु उनका मुख्य मन्दिर रामदेवरा ग्राम में है, जहां पर उन्होंने जीवित समाधि ली थी। इसी रामदेवरा गांव में प्रति वर्ष भादों सुदी 2 से 11 तक एक मेला लगता है जो कि ‘रामदेवरा मेला’ के नाम भारत में सुविख्यात है। ‘रामदेवरा’ को मारवाड़ी व गुजराती लोग ‘रूणीचा’ के नाम से भी पुकारते हैं। इस मेले में लाखों की संख्या में लोग अपनी-अपनी आकांक्षाएं लेकर अपने इष्टदेव रामदेवजी की पूजा करने आते हैं।रामदेवरा ग्राम पहिले जोधपुर जिले में था अब जैसलमेर जिले की ‘पोकरण’ तहसील में है। जोधपुर | से जैसलमेर जाने वाली रेलवे लाइन पर ‘रामदेवरा’ उत्तरी रेलवे का स्टेशन है। जोधपुर से।रामदेवरा डामर की पक्की सड़क से भी जुड़ा है।
श्रद्धालु जनों का विश्वास है कि रामदेवजी निर्धनों को धन, निपुत्रों को पुत्र,अन्धों को आंखें, पंगु लोगों को पैर देते हैं तथा कुष्ठ आदि भयंकर रोगों का निवारण करते हैं।’
गैर चाकर पटो पावै, बंदीवान निकासा।
रंक रे सिर छत्तर धरियो, आणंद उचरंग ऐसा।
बांझीया रूणीचै रमजी रमता-रमता जावै।
बांझीया नै पुतर देराड़ौ हरे राम।।
आंधला रूणीचै रमजी राजी-राजी जावै।
आंधला नै आंखियां देराड़ौ हरे राम।।
पांगळिया रूणीचै रमजी रमता-रमता जावै।
पांगळा ने पांव देराड़ौ हरे राम।।
कोढ़ीया रूणीचै रमजी रमता-रमता जावै।
कोढ़िया रा कळंक झड़ावौ हरे राम।।
बाबा रामदेव जी प्रगतिशील विचारक थे। उन्होंने जातिगत भेद-भावों को मान्यता नहीं दी। अछूतोद्धार के लिए उन्होंने सफल प्रयत्न किया था। वस्तुत: रामदेवजी सच्चे समाज-सुधारक थे। उन्होंने ऊंच-नीच, अमीर-गरीब के भेदभावों से भर उठकर मानव मात्र का कल्याण किया। यही कारण कि उन्हें हर जाति के लोग श्रद्धापूर्वक पूजते हैं।
राजस्थान और गुजरात में झूठ या सही बात के प्रमाण स्वरूप रामदेवजी की सौगन्ध दिलवाई जाती है। इसी तरह की सौगन्ध अथवा संकल्प को ‘रामदेव बाबा री आण’ भी कहा जाता है। । बहुत से घरों में प्रात: और सायंकाल गौ-घृत से रामदेवजी की ‘जोत की जाती है। कहीं-कहीं यह ‘जोत’ हर महीने के शुक्ल पक्ष की एकादशी को की जाती है।
लोक-विश्वास के अनुसार ग्रामीण लोगों में अकस्मात् कोई विपत्ति आने पर रामदेवजी की ‘जोत’ कर उनके चरणों का प्रक्षालन कर के उस पवित्र जल को अमृत-तुल्य समझकर कष्ट निवारण हेतु उसका आचमन किया जाता है। इसे रामदेवजी का चरणामृत अथवा रामदेवजी का कलश भी कहा जाता है। | इस तरह मारवाड़ और गुजरात में हर जाति और वर्ग के लोग परम श्रद्धा और उत्साहपूर्वक अपने इष्टदेवता के रूप में बाबा रामदेवजी की पूजा करते हैं। इस रूप में हम रामदेवजी को एक लोक-देवता कह सकते हैं।
रामदेवजी : रामसापीर (हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक)
‘पीर’ शब्द मुस्लिम परम्परा का है, जिसका अर्थ है – सिद्ध महात्मा। रामदेवजी की यह विशिष्टता है कि उन्हें हिन्दुओं ने भी पूजा और मुसलमानों ने भी पूजा। हिन्दुओ ने उन्हें देव कहा और मुसलमानों ने पीर कहा। रामदेवजी को गणना राजस्थान के पांच प्रसिद्ध पीरों में होती है -जेसे की पाबुजी राठोड, हडबुजेर शांखला, मांगलियाजी मेहा और गोगाजी चौहाण
क्रमशः पोस्ट….
संदर्भः बाबा रामदेवः इतीहास एवं साहित्य
लेखकः प्रो.(डॉ.) सोनाराम बीसनोई
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